स꣡ नो꣢ म꣣हा꣡ꣳ अ꣢निमा꣣नो꣢ धू꣣म꣡के꣢तुः पुरुश्च꣣न्द्रः꣢ । धि꣣ये꣡ वाजा꣢꣯य हिन्वतु ॥१६६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स नो महाꣳ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः । धिये वाजाय हिन्वतु ॥१६६४॥
सः꣢ । नः꣣ । महा꣢न् । अ꣣निमानः꣢ । अ꣣ । निमानः꣢ । धू꣣म꣡के꣢तुः । धू꣣म꣢ । के꣣तुः । पु꣣रुश्चन्द्रः । पु꣣रु । चन्द्रः꣢ । धि꣣ये꣢ । वा꣡जा꣢꣯य । हि꣡न्वतु ॥१६६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा के गुणों का वर्णन करते हुए उससे प्रार्थना करते हैं।
(सः) वह प्रसिद्ध, (महान्) गुणों में महान्, (अनिमानः) देश और काल से असीमित, (धूमकेतुः) फहराती हुई ओ३म् की ध्वजावाला, (पुरुश्चन्द्रः) बहुत आह्लाददायक अग्रनायक परमेश्वर (नः) हमें (धिये) ज्ञान और कर्म के लिए तथा (वाजाय) बल के लिए (हिन्वतु) प्रेरित करे ॥२॥
सच्ची परमात्मा की स्तुति वही है, जिससे मनुष्य ज्ञान कमाने, बल सञ्चित करने तथा पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरणा प्राप्त करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मगुणान् वर्णयन् तं प्रार्थयते।
(सः) असौ प्रसिद्धः, (महान्) महागुणः (अनिमानः) देशेन कालेन च अपरिच्छिन्नः, (धूमकेतुः) दोधूयमान ओंकारध्वजः(पुरुश्चन्द्रः) बह्वाह्लादकः। [अत्र ‘ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे’। अ० ६।१।१५१ अनेन सुडागमः।] (अग्निः) अग्रणीः परमेश्वरः(नः) अस्मान् (धिये) ज्ञानसम्पादनाय कर्मकरणाय च(वाजाय) बलसंचयाय च (हिन्वतु) प्रेरयतु ॥२॥२
सत्या परमात्मस्तुतिः सैव यया मनुष्यो ज्ञानार्जनाय बलसंचयाय पुरुषार्थाय च प्रेरणां प्राप्नोति ॥२॥