वृ꣡षा꣢ यू꣣थे꣢व꣣ व꣡ꣳस꣢गः कृ꣣ष्टी꣡रि꣢य꣣र्त्यो꣡ज꣢सा । ई꣡शा꣢नो꣣ अ꣡प्र꣢तिष्कुतः ॥१६२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषा यूथेव वꣳसगः कृष्टीरियर्त्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुतः ॥१६२२॥
वृ꣡षा꣢꣯ । यू꣣था꣢ । इ꣣व । व꣡ꣳस꣢꣯गः । कृ꣣ष्टीः꣢ । इ꣣यर्ति । ओ꣡ज꣢꣯सा । ई꣡शा꣢꣯नः । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः ॥१६२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब कैसा परमात्मा किसके समान किन्हें प्राप्त होता है, यह कहते हैं।
(वंसगः) शान से चलनेवाला (वृषा) साँड (यूथा इव) जैसे गौओं के झुण्ड में जाता है, वैसे ही (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला, (वंसगः) धर्मसेवी के पास जानेवाला (ईशानः) जगदीश्वर (अप्रतिष्कुतः) किसी से न रोका जाता हुआ (ओजसा) बल के साथ (कृष्टीः) उपासक मनुष्यों के पास (इयर्ति) पहुँच जाता है ॥३॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥
जो श्रद्धा से परमेश्वर की उपासना करते हैं, परमेश्वर भी उन धर्मात्मा लोगों की अवश्य सहायता करता है और उन्हें बल देता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशः परमात्मा क इव कान् प्राप्नोतीत्याह।
(वंसगः२) वननीयगतिः, कमनीयगमनः (वृषा) वृषभः (यूथा इव) गोयूथानि इव (वृषा) शुभगुणवर्षणकर्ता (वंसगः३) वंसं धर्मसेविनं गच्छतीति तथाविधः (ईशानः) जगदीश्वरः (अप्रतिष्कुतः) केनापि अप्रतिरुद्धः सन् (ओजसा) बलेन (कृष्टीः) उपासकान् मनुष्यान् (इयर्ति) प्राप्नोति ॥३॥४ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
ये श्रद्धया परमेश्वरमुपासते परमेश्वरोऽपि तेषां धर्मात्मनां जनानां साहाय्यमवश्यं करोति तेभ्यो बलं च ददाति ॥३॥