स꣡ नो꣢ वृषन्न꣣मुं꣢ च꣣रु꣡ꣳ सत्रा꣢꣯दाव꣣न्न꣡पा꣢ वृधि । अ꣣स्म꣢भ्य꣣म꣡प्र꣢तिष्कुतः ॥१६२१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स नो वृषन्नमुं चरुꣳ सत्रादावन्नपा वृधि । अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥१६२१॥
सः । नः꣣ । वृषन् । अमु꣢म् । च꣣रु꣢म् । स꣡त्रा꣢꣯दावन् । स꣡त्रा꣢꣯ । दा꣣वन् । अ꣡प꣢꣯ । वृ꣣धि । अस्म꣡भ्य꣢म् । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः ॥१६२१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
हे (वृषन्) सुखों की वर्षा करनेवाले, (सत्रादावन्) एक साथ दान देनेवाले, सत्य के प्रेरक वा सृष्टियज्ञ के सम्पादक जगदीश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) अविचल (सः) वह आप(अस्मभ्यम्) आपकी आज्ञा में और पुरुषार्थ में वर्तमान हम उपासकों के लिए (अमुं चरुम्) सूर्य के प्रतिबन्धक मेघ के समान इस मोक्षमार्ग में रुकावट डालनेवाले अविद्या, दुराचार आदि को (अपावृधि) दूर कर दो ॥२॥
जैसे सूर्य अपने प्रकाश के सञ्चार में बाधा डालनेवाले मेघ रूप कपाट को खोलकर भूमण्डल को प्रकाशित करता है, वैसे ही जगदीश्वर हमारे मोक्ष में बाधक अविद्या, दुष्कर्म आदि को हटाकर हमें मोक्ष प्राप्त कराते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (वृषन्) सुखवर्षक, (सत्रादावन्२) युगपद् दानप्रद सत्यप्रेरक सृष्टियज्ञसम्पादक वा जगदीश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितः।[अप्रतिष्कुतः अप्रतिष्कृतोऽप्रतिस्खलितो वेति निरुक्तम् (६।१६)।] (सः) असौ त्वम् (अस्मभ्यम्) त्वदाज्ञायां पुरुषार्थे च वर्तमानेभ्यः उपासकेभ्यः (अमुं चरुम्) सूर्यप्रतिबन्धकं मेघमिव एतं मोक्षमार्गप्रतिबन्धकं कदाचारादिकम्। [चरुरिति मेघनाम। निघं० १।१०।] (अपावृधि) दूरीकुरु ॥२॥३
यथा सूर्यः स्वप्रकाशसञ्चारबाधकं मेघकपाटमपावृत्य भूमण्डलं प्रकाशयति तथैव जगदीश्वरोऽस्माकं मोक्षबाधकमविद्यादुष्कर्मादिक- मपसार्यास्मान् मोक्षं प्रापयति ॥२॥