अ꣣य꣡मु꣢ ते꣣ स꣡म꣢तसि क꣣पो꣡त꣢ इव गर्भ꣣धि꣢म् । व꣢च꣣स्त꣡च्चि꣢न्न ओहसे ॥१५९९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम् । वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥१५९९॥
अ꣣य꣢म् । उ꣣ । ते । स꣡म् । अ꣣तसि । कपो꣡तः꣢ । इ꣣व । गर्भधि꣢म् । ग꣣र्भ । धि꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । तत् । चि꣣त् । नः । ओहसे ॥१५९९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १८३ क्रमाङ्क पर परमेश्वर को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ उपासक को सम्बोधन करते हैं।
हे उपासक ! (अयम् उ) यह इन्द्र नामक परमेश्वर (ते) तेरा ही है, जिसे तू (समतसि) भली-भाँति प्राप्त करता है। कैसे प्राप्त करता है ? (कपोतः इव) जैसे कबूतर (गर्भधिम्) नन्हे-नन्हे शिशुओं को धारण करनेवाले अपने घोंसले को प्राप्त करता है। (तत् चित्) इस (नः) हमारे (वचः) वचन पर, हे उपासक ! तू (ओहसे) विचार कर ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
परमेश्वर के साथ अन्तरङ्ग सम्बन्ध स्थापित करके उपासक को परमेश्वर के गुण अपने में धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १८३ क्रमाङ्के परमेश्वरं सम्बोधिता। अत्रोपासकः सम्बोध्यते।
हे उपासक ! (अयम् उ) अयमिन्द्रः परमेश्वरः किल (ते) तवैव वर्तते, यं त्वम् (समतसि) सम्यक् प्राप्नोषि। कथमिव ? (कपोतः इव) पारावतो यथा (गर्भधिम्) गर्भरूपाणाम् अल्पवयस्कानां शिशूनां धारकं स्वावासभूतं नीडं प्राप्नोति तद्वत्। (तत् चित्) तत् खलु (नः) अस्माकम् (वचः) वचनम्, हे उपासक ! त्वम् (ओहसे) वितर्कय, विचारय। [ऊह वितर्के, भ्वादिः। लेटि रूपम्] ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
परमेश्वरेण सहान्तरङ्गं सम्बन्धं संस्थाप्योपासकेन परमेश्वरगुणान् स्वात्मानि धारयितुं प्रयतनीयम् ॥१॥