इ꣢न्द्र꣣मि꣢द्दे꣣व꣡ता꣢तय꣣ इ꣡न्द्रं꣢ प्र꣣꣬यत्य꣢꣯ध्व꣣रे꣢ । इ꣡न्द्र꣢ꣳ समी꣣के꣢ व꣣नि꣡नो꣢ हवामह꣣ इ꣢न्द्रं꣣ ध꣡न꣢स्य सा꣣त꣡ये꣢ ॥१५८७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रमिद्देवतातय इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रꣳ समीके वनिनो हवामह इन्द्रं धनस्य सातये ॥१५८७॥
इ꣡न्द्र꣢꣯म् । इत् । दे꣣व꣡ता꣢तये । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । प्र꣡यति꣢꣯ । प्र꣣ । यति꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣मीके꣢ । स꣣म् । ईके꣢ । व꣣नि꣡नः꣢ । ह꣣वामहे । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ध꣡न꣢꣯स्य । सा꣣त꣡ये꣢ ॥१५८७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २४९ क्रमाङ्क पर जगदीश्वर और राजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ यज्ञ की सफलता के लिए जगदीश्वर का आह्वान है।
(इन्द्रम् इत्) जगदीश्वर को ही (देवतातये) यज्ञ के आरम्भ के लिए, (इन्द्रम्) जगदीश्वर को ही (अध्वरे) यज्ञ के (प्रयति) प्रवृत्त होने पर, (इन्द्रम्) जगदीश्वर को ही (समीके) यज्ञ समाप्त होने पर (इन्द्रम्) जगदीश्वर को ही (धनस्य) यज्ञफल की (सातये) प्राप्ति के लिए (वनिनः) भक्ति में तन्मय होकर हम (हवामहे) पुकारते हैं ॥१॥
अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त अथवा देवपूजा, सङ्गतिकरण और दानरूप जो भी यज्ञ आयोजित किया जाता है, उसमें सदा परमेश्वर का स्मरण रखने से वह सफल होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २४९ क्रमाङ्के जगदीश्वरनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र यज्ञसाफल्याय जगदीश्वर आहूयते।
(इन्द्रम् इत्) जगदीश्वरमेव (देवतातये) यज्ञारम्भाय। [देवताता इति यज्ञनामसु पठितम्। निघं० ३।१७।] (इन्द्रम्) जगदीश्वरमेव (अध्वरे) यज्ञे (प्रयति) प्रवृत्ते सति, (इन्द्रम्) जगदीश्वरमेव (समीके) यज्ञे समाप्ते सति, (इन्द्रम्) जगदीश्वरमेव (धनस्य) यज्ञफलस्य (सातये) प्राप्तये (वनिनः) भक्तिमन्तो वयम् (हवामहे) आह्वयामः ॥१॥
अग्निहोत्रादारभ्याश्वमेधपर्यन्तो देवपूजासंगतिकरणदानात्मको वा योऽपि यज्ञ आयोज्यते तत्र सदा परमेश्वरस्य स्मरणेन स फलवान् जायते ॥१॥