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त्वं꣢ पु꣣रू꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि श꣣ता꣡नि꣢ च यू꣣था꣢ दा꣣ना꣡य꣢ मꣳहसे । आ꣡ पु꣢रन्द꣣रं꣡ च꣢कृम꣣ वि꣡प्र꣢वचस꣣ इ꣢न्द्रं꣣ गा꣢य꣣न्तो꣡ऽव꣢से ॥१५८२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वं पुरू सहस्राणि शतानि च यूथा दानाय मꣳहसे । आ पुरन्दरं चकृम विप्रवचस इन्द्रं गायन्तोऽवसे ॥१५८२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्व꣢म् । पु꣣रु꣢ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । श꣣ता꣡नि꣢ । च꣣ । यूथा꣢ । दा꣣ना꣡य꣢ । म꣣ꣳहसे । आ꣢ । पु꣣रन्दर꣢म् । पु꣣रम् । दर꣢म् । च꣣कृम । वि꣡प्र꣢꣯वचसः । वि꣡प्र꣢꣯ । व꣣चसः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गा꣡य꣢꣯न्तः । अ꣡व꣢꣯से ॥१५८२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1582 | (कौथोम) 7 » 3 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 16 » 1 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमात्मा को संबोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यशालिन् परमात्मदेव ! (त्वम्) परम दानी आप (पुरू) बहुत से (सहस्राणि) हजार, (शतानि च) और सौ हजार अर्थात् लाख (यूथा) गौओं के झुण्डों को अर्थात् अध्यात्मप्रकाश के समूहों को (दानाय) अन्यों को देने के लिए, हम योगाभ्यासियों को (मंहसे) देते हो। (विप्रवचसः) बुद्धिपूर्वक वचनोंवाले, हम (गायन्तः) आपकी स्तुति का गान करते हुए (अवसे) रक्षा के लिए (पुरुन्दरम्) विपत्तिरूप नगरियों को तोड़-फोड़ देनेवाले (इन्द्रम्) वीर आपको (आ चकृम) अपना सखा बना लेते हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -

निरन्तर योगाभ्यास की साधना से, परमात्मा के ध्यान से, प्रणव-जप आदि से अनन्त प्रकाश के समूह सामने आते हैं, जिनकी चकमक से चमत्कृत हुआ साधक परम स्थिति को पा लेता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मानं सम्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यशालिन् परमात्मदेव ! (त्वम्) परमदानी त्वम् (पुरू) पुरूणि बहूनि (सहस्राणि) सहस्र-संख्यकानि, (शतानि च) शत-सहस्राणि च, लक्षसंख्यकानि इत्यर्थः (यूथा) गोयूथानि अध्यात्मप्रकाशसमूहान् (दानाय) अन्येभ्यः प्रदानाय (मंहसे) योगाभ्यासिभ्यः अस्मभ्यम् ददासि। [महतिर्दानकर्मा। निघं० ३।२०।] (विप्रवचसः) प्राज्ञवचनाः वयम् (गायन्तः) स्तुतिं कीर्तयन्तः (अवसे) रक्षार्थम् (पुरन्दरम्) विपत्पुरीणां विदारयितारम् (इन्द्रम्) वीरं त्वाम् (आ चकृम) स्वकीयं सखायं कुर्मः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

निरन्तरं योगाभ्याससाधनया परमात्मध्यानेन प्रणवजपादिना चानन्तप्रकाशसमूहाः पुरतः समायान्ति येषां चाकचक्येन चमत्कृतः साधकः परमां स्थितिं लभते ॥२॥