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उ꣡प꣢ त्वा जा꣣म꣢यो꣣ गि꣢रो꣣ दे꣡दि꣢शतीर्हवि꣣ष्कृ꣡तः꣢ । वा꣣यो꣡रनी꣢꣯के अस्थिरन् ॥१५७०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः । वायोरनीके अस्थिरन् ॥१५७०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । जाम꣡यः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । दे꣡दि꣢꣯शतीः । ह꣣विष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । वा꣣योः꣢ । अ꣡नी꣢꣯के । अ꣢स्थिरन् ॥१५७०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1570 | (कौथोम) 7 » 2 » 14 » 1 | (रानायाणीय) 15 » 4 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १३ क्रमाङ्क पर परमात्मा की महिमा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ वेद-वाणियों का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे अग्ने ! हे प्रकाशमय जगदीश्वर ! (हविष्कृतः) आत्मसमर्पणकर्ता उपासक की (जामयः) बहिनों के समान हितकारिणी, (त्वा देदिशतीः) आपके गुणों का निर्देश करती हुई (गिरः) वेदवाणियाँ (वायोः) प्राणप्रिय आपके (अनीके) समीप (उप अस्थिरन्) उपस्थित हो रही हैं ॥ अन्यत्र कहा भी है—ऋचाएँ उसी अविनाशी सर्वोच्च परमेश्वर का प्रतिपादन करती हैं, जिसमें सब दिव्यगुण अवस्थित हैं। जिसने उसे नहीं जाना, उसे वेद से क्या लाभ ? जो उसे जान लेते हैं, वे मोक्ष पद में समासीन हो जाते हैं (ऋ० १।१६४।३९) ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जो परमेश्वर अग्नि के समान स्तोता के हृदय में दिव्य ज्योति प्रज्वलित कर देता है और वायु के समान उसे धौंकता रहता है, उसी की महिमा को सब वेद एक स्वर से गाते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १३ क्रमाङ्के परमात्ममहिमविषये व्याख्याता। अत्र वेदवाचो वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे अग्ने ! हे प्रकाशमय जगदीश्वर ! (हविष्कृतः) आत्मसमर्पकस्य उपासकस्य (जामयः) स्वसार इव हितकारिण्यः, (त्वा देदिशतीः) तव गुणान् निर्दिशन्त्यः (गिरः) वेदवाचः (वायोः) प्राणप्रियस्य तव (अनीके) समीपे (उप अस्थिरन्) उपतिष्ठन्ते। [उक्तं चान्यत्र—ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न् यस्मि॑न् दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत् तद् वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते। ऋ० १।१६४।३९ इति] ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यः परमेश्वरोऽग्निरिव स्तोतुरन्तरात्मनि दिव्यं ज्योतिः प्रज्वालयति, वायुरिव च तत् संधुक्षते, तस्यैव महिमानमेकस्वरेण वेदा वर्णयन्ति ॥१॥