वृ꣡ष꣢णं त्वा व꣣यं꣡ वृ꣢ष꣣न्वृ꣡ष꣢णः꣣ स꣡मि꣢धीमहि । अ꣢ग्ने꣣ दी꣡द्य꣢तं बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि । अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥१५४०॥
वृ꣡ष꣢꣯णम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । वृ꣣षन् । वृ꣡ष꣢꣯णः । सम् । इ꣣धीमहि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दी꣡द्य꣢꣯तम् । बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर परमात्मा का विषय है।
हे (वृषन्) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! (वृषणः) भक्तिरस बरसानेवाले (वयम्) हम उपासक (वृषणम्) आनन्द-रस के वर्षक, (बृहत् दीद्यतम्) बहुत देदीप्यमान (त्वा) आपको (समिधीमहि) अपने अन्दर प्रदीप्त करते हैं ॥३॥
जो परमात्मा को भक्तिरस से भिगोता है, उसे वह आनन्द-रस से भिगो देता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मविषयमाह।
हे (वृषन्) कामवर्षक (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (वृषणः) भक्तिरसवर्षकाः (वयम्) उपासकाः (वृषणम्) आनन्दरसवर्षकम्, (बृहत् दीद्यतम्) सातिशयं दीप्यमानम् (त्वा) त्वाम् (समिधीमहि) स्वात्मनि प्रदीपयामः ॥३॥२
यः परमात्मानं भक्तिरसेन क्लेदयति तं स आनन्दरसेन क्लेदयति ॥३॥