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त्वे꣡ सो꣢म प्रथ꣣मा꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषो म꣣हे꣡ वाजा꣢꣯य श्र꣡व꣢से꣣ धि꣡यं꣢ दधुः । स꣡ त्वं नो꣢꣯ वीर वी꣣꣬र्या꣢꣯य चोदय ॥१५०६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः । स त्वं नो वीर वीर्याय चोदय ॥१५०६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे꣡इति꣢ । सो꣣म । प्रथमाः꣢ । वृ꣣क्त꣢ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । महे꣢ । वा꣡जा꣢꣯य । श्र꣡व꣢꣯से । धि꣡य꣢꣯म् । द꣣धुः । सः꣢ । त्वम् । नः꣣ । वीर । वीर्या꣢य । चो꣣दय ॥१५०६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1506 | (कौथोम) 7 » 1 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 2 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में सोम नाम से जगत्पति से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगत् के उत्पादक, शुभ गुण-कर्म-स्वाभाव के प्रेरक, सबको आह्लाद देनेवाले परमात्मन् ! (प्रथमाः) श्रेष्ठ (वृक्तबर्हिषः) उपासना-यज्ञ में कुशाओं का आसन बिछाये हुए यजमान (महे वाजाय) महान् बल के लिए और (श्रवसे) यश के लिए (त्वे) आपमें (धियं दधुः) ध्यान लगाते हैं। (सः त्वम्) वह सब श्रेष्ठ जनों से ध्यान किये गये आप (नः) हम ध्यानकर्ताओं को (वीर्याय) वीर कर्म के लिए (चोदय) प्रेरित कीजिए ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा के ध्यानकर्ता लोग बली होकर शुभ्र, लोकहितकारी कर्मों को करते हुए यशस्वी होते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ सोमनाम्ना जगत्पतिः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगदुत्पादक शुभगुणकर्मस्वभावप्रेरक सर्वाह्लादक परमात्मन् ! (प्रथमाः) श्रेष्ठाः (वृक्तबर्हिषः) उपासनायज्ञे छिन्नकुशाः आस्तीर्णदर्भासना यजमानाः (महे वाजाय) महते बलाय (श्रवसे) यशसे च (त्वे) त्वयि (धियं दधुः) ध्यानं सम्पादयन्ति। (सः त्वम्) असौ सर्वैः श्रेष्ठजनैर्ध्यातः त्वम् (नः) ध्यानिनः अस्मान् (वीर्याय) वीरकर्मणे (चोदय) प्रेरय ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मनो ध्यातारो बलिनो भूत्वा शुभानि लोकहितावहानि कर्माणि कुर्वन्तो यशस्विनो जायन्ते ॥१॥