अ꣣हं꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ गि꣡रः꣢ शुम्भामि कण्व꣣व꣢त् । ये꣢꣫नेन्द्रः꣣ शु꣢ष्म꣣मि꣢द्द꣣धे꣢ ॥१५०१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अहं प्रत्नेन जन्मना गिरः शुम्भामि कण्ववत् । येनेन्द्रः शुष्ममिद्दधे ॥१५०१॥
अ꣣ह꣢म् । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । गि꣡रः꣢꣯ । शु꣣म्भाभि । कण्वव꣢त् । ये꣡न꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । शु꣡ष्म꣢꣯म् । इत् । द꣣धे꣢ ॥१५०१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
(अहम्) मैं महत्वाकाङ्क्षी जन (प्रत्नेन जन्मना) आचार्य के पास से प्राप्त श्रेष्ठ जन्म से (कण्ववत्) मेधावी विद्वान् के समान (गिरः) अपनी वाणियों को (शुम्भामि) सत्य भाषण से अलङ्कृत करता हूँ, (येन) जिससे (इन्द्रः) मेरा जीवात्मा (शुष्मम् इत्) बल को ही (दधे) धारण करता है ॥२॥
आचार्य और सावित्री के पास से द्वितीय जन्म ग्रहण कर, द्विज होकर जो मन, वाणी और कर्म से सत्य का ही अनुष्ठान करता है, वह पवित्र आत्मावाला और सबल आत्मावाला होकर सबसे सत्कार पाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः स एव विषयो वर्ण्यते।
(अहम्) महत्त्वाकाङ्क्षी जनः (प्रत्नेन जन्मना) आचार्यसकाशात् प्राप्तेन श्रेष्ठेन जनुषा (कण्ववत्) मेधावी विद्वानिव (गिरः) स्वकीया वाचः (शुम्भामि२) सत्यभाषणेन अलङ्करोमि। [शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः।] (येन) यस्मात् (इन्द्रः) मदीयो जीवात्मा (शुष्मम् इत्) बलमेव (दधे) धारयति ॥२॥
आचार्यस्य सावित्र्याश्च सकाशाद् द्वितीयं जन्म गृहीत्वा द्विजः सन् यो मनसा वाचा कर्मण च सत्यमेवानुतिष्ठति स पवित्रात्मा सबलात्मा च सर्वैः सत्क्रियते ॥२॥