य꣢꣫दिन्द्रो꣣ अ꣡न꣢य꣣द्रि꣡तो꣢ म꣣ही꣢र꣣पो꣡ वृष꣢꣯न्तमः । त꣡त्र꣢ पू꣣षा꣡भु꣢व꣣त्स꣡चा꣢ ॥१४८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदिन्द्रो अनयद्रितो महीरपो वृषन्तमः । तत्र पूषाभुवत्सचा ॥१४८॥
य꣢त् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣡न꣢꣯यत् । रि꣡तः꣢꣯ । म꣣हीः꣢ । अ꣣पः꣢ । वृ꣡ष꣢꣯न्तमः । त꣡त्र꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । अ꣣भुवत् । स꣡चा꣢꣯ ॥१४८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर ही सूर्य द्वारा भूमियों और जलों को गति देता है।
(वृषन्तमः) अतिशय बलवान् अथवा वृष्टिकर्ता (इन्द्रः) परमेश्वर (यत्) जब (रितः) गति करनेवाली (महीः) पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रह रूप भूमियों को (अनयत्) अपनी-अपनी कक्षाओं में सूर्य के चारों ओर घुमाता है, और (अपः) जलों को (अनयत्) भाप बनाकर ऊपर और वर्षा द्वारा नीचे पहुँचाता है, तब (तत्र) उस कर्म में (पूषा) पुष्टिप्रद सूर्य (सचा) सहायक (अभुवत्) होता है ॥४॥
महामहिमाशाली जगदीश्वर ही सूर्य, विद्युत्, बादल, आदि को साधन बनाकर सब प्राकृतिक नियमों का संचालन कर रहा है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमेश्वर एव सूर्यद्वारा भूमीरपश्च गमयतीत्याह।
(वृषन्तमः) बलवत्तमः वर्षकतमो वा (इन्द्रः) परमेश्वरः (यत्) यदा (रितः२) गन्त्रीः। रिणन्तीति रितः। रिणातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। क्विपि ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् अ० ६।१।७१ इति तुक्। (महीः) पृथिवीचन्द्रादिग्रहोपग्रहरूपाः भूमीः, (अनयत्) स्वस्वरक्षासु सूर्यं परितो भ्रमयति, (अपः) जलानि च (अनयत्) वाष्पीकरणेन ऊर्ध्वं वर्षणेन च अधः प्रापयति, तदा (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (पूषा) पुष्टिप्रदः सूर्यः (सचा) सहायकः। सचा सह। निरु० ५।५। (अभुवत्) भवति। भू धातोर्लङि छन्दसि गुणाभावे उवङादेशः ॥४॥३
महामहिमशालिना जगदीश्वरेणैव सूर्यविद्युत्पर्जन्यपवनादीन् साधनतां नीत्वा सर्वे प्राकृतिकनियमाः सञ्चाल्यन्ते ॥४॥