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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: उशनाः काव्यः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः काण्ड:

स꣢ ई꣣ꣳ र꣢थो꣣ न꣡ भु꣢रि꣣षा꣡ड꣢योजि म꣣हः꣢ पु꣣रू꣡णि꣢ सा꣣त꣢ये꣣ व꣡सू꣢नि । आ꣢दीं꣣ वि꣡श्वा꣢ नहु꣣꣬ष्या꣢꣯णि जा꣣ता꣡ स्व꣢र्षाता꣣ व꣡न꣢ ऊ꣣र्ध्वा꣡ न꣢वन्त ॥१४७२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स ईꣳ रथो न भुरिषाडयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि । आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वा नवन्त ॥१४७२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । ई꣣म् । र꣡थः꣢꣯ । न । भु꣣रिषा꣢ट् । अ꣣योजि । महः꣢ । पु꣣रू꣡णि꣢ । सा꣣त꣡ये꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । आत् । ई꣣म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । न꣣हुष्या꣢णि । जा꣣ता꣢ । स्व꣡र्षा꣢ता । स्वः꣡ । सा꣣ता । व꣡ने꣢꣯ । ऊ꣣र्ध्वा꣡ । न꣣वन्त ॥१४७२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1472 | (कौथोम) 6 » 3 » 13 » 2 | (रानायाणीय) 13 » 5 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा की मैत्री का फल वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः ईम्) वह यह (भुरिषाट्) बहुत-से विघ्नों को परास्त करनेवाला, (महः) महान् सोम नामक जीवात्मा (पुरूणि वसूनि) बहुत से ऐश्वर्यों को (सातये) प्राप्त करने के लिए (रथः न) रथ के समान (अयोजि) परमात्मा के साथ जुड़ गया है। (आत् ईम्) तदनन्तर ही (विश्वा) सब (जाता) बलवान् बने हुए (नहुष्याणि) मनुष्य के मन, बुद्धि आदि (स्वर्षाता) प्रकाश की प्राप्ति हो जाने पर (वने) तेज में (ऊर्ध्वा) ऊर्ध्वगामी होकर (नवन्त) क्रियाशील हो गये हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे रथ जब बिजली रूप अग्नि के साथ जुड़ जाता है, तब तुरन्त सक्रिय हो जाता है, वैसे ही परमात्मा की मित्रता में जुड़ा हुआ जीवात्मा स्वयं पुरुषार्थी होकर मन, बुद्धि आदि को भी सक्रिय कर देता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनः सख्यस्य फलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः ईम्) सोऽयम् (भुरिषाट्) भूरीन् विघ्नान् सहते पराभवति यः सः (महः) महान् सोमः जीवात्मा (पुरूणि वसूनि) बहूनि ऐश्वर्याणि, बहूनामैश्वर्याणामित्यर्थः (सातये) प्राप्तये (रथः न) रथः इव (अयोजि) परमात्मना सह योजितोऽस्ति। (आत् ईम्) तदनन्तरमेव (विश्वा) विश्वानि (जाता) बलवन्ति जातानि (नहुष्याणि) मानुषाणि मनोबुद्ध्यादीनि। [नहुष इति मनुष्यनाम। निघं० २।३।] (स्वर्षाता) स्वर्षातौ प्रकाशस्य प्राप्तौ सत्याम् (वने) तेजसि [वनमिति रश्मिनाम। निघं० १।५।] (ऊर्ध्वा) ऊर्ध्वानि (भूत्वा नवन्त) अनवन्त क्रियाशीलानि जातानि। [नवते गतिकर्मा। निघं० २।१४, लडर्थे लङि अडभावश्छान्दसः] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा रथो यदा विद्युदग्निना युज्यते तदा सद्य एव सक्रियो जायते तथैव परमात्मनः सख्ये युक्तो जीवात्मा स्वयं पुरुषार्थी सन् मनोबुद्ध्यादीन्यपि सक्रियाणि करोति ॥२॥