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इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा पुरूवसो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नुवु꣣र्गि꣡रः꣢ । गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥१४६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इमा उ त्वा पुरूवसोऽभि प्र नोनुवुर्गिरः । गावो वत्सं न धेनवः ॥१४६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । अभि꣢ । प्र । नो꣣नुवुः । गि꣡रः꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥१४६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 146 | (कौथोम) 2 » 2 » 1 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में उपासक जन परमात्मा को कह रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पुरूवसो) विद्या, सुवर्ण, सद्गुण आदि बहुत से धनों के स्वामी परमात्मन् ! (इमाः उ) ये हमारे द्वारा उच्चारण की जाती हुई (गिरः) भावपूर्ण स्तुतिवाणियाँ (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (प्र नोनुवुः) प्रकृष्ट रूप से अतिशय पुनः-पुनः शब्दायमान हो रही हैं, (धेनवः) अपना दूध पिलाने के लिए उत्सुक (गावः) गौएँ (वत्सं न) जैसे अपने बछड़े को लक्ष्य करके रँभाती हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

हे जगदीश्वर ! जैसे गौएँ अपने प्यारे बछड़े को देखकर पौस कर उसे अपना दूध पिलाने के लिए रँभाती हैं, वैसे ही हमारी रस-भरी स्तुति-वाणियाँ भक्ति-रस को उद्वेल्लित सा करती हुई प्राणों से भी प्रिय आपको वह रस पिलाने के लिए आपके प्रति बहुत अधिक शब्दायमान हो रही हैं और आपकी स्तुति कर रही हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथोपासका जनाः परमात्मानमाहुः।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पुरूवसो) पुरूणि बहूनि वसूनि विद्याहिरण्यसद्गुणादीनि धनानि यस्य स पुरूवसुः, तादृश हे परमात्मन् ! संहितायां पूर्वपदस्य छान्दसो दीर्घः। (इमाः उ) एता हि अस्मदुच्चार्यमाणाः (गिरः) भावभरिताः स्तुतिवाचः (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (प्र नोनुवुः) प्रकर्षेण भृशं पुनः पुनः शब्दायन्ते। णु स्तुतौ धातोर्यङ्लुकि प्रयोगः। (धेनवः२) स्वकीयं पयः पाययितुं समुत्सुकाः। धापयति स्वकीयं पयो या सा धेनुः। धेट् पाने धातोः धेट इच्च। उ० ३।३४ इति नु प्रत्ययः। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वा। निरु० ११।४३। (गावः) क्षीरिण्यः (वत्सं न) यथा वत्सम् अभिलक्ष्य प्र नोनुवन्त हम्भाशब्दं कुर्वन्ति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

हे जगदीश्वर ! यथा धेनवः स्वकीयं प्रियं वत्समवलोक्य प्रस्नुतपयोधराः सत्यः तं पयः पाययितुं हम्भारवं कुर्वन्ति, तथैवास्मदीया रसभरिताः स्तुतिवाचः भक्तिरसमुद्वेल्लयन्त्य इव प्राणेभ्योऽपि प्रियं त्वां तं रसं पाययितुं त्वां प्रति भृशं शब्दायन्ते, त्वां स्तुवन्ति च ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।४५।२५, २८ ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। इमा उ त्वा शतक्रतोऽभि प्र णोनुवुर्गिरः। इन्द्र वत्सं न मातरः ॥ इमा उ त्वा सुते सुते नक्षन्ते गिर्वणो गिरः। वत्सं गावो न धेनवः ॥ इति द्वयोर्ऋचोः पाठः। २. धेनवः अचिरप्रसूताः—इति वि०। दोग्ध्र्यः—इति भ०।