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न꣢म꣣से꣡दुप꣢꣯ सीदत द꣣ध्ने꣢द꣣भि꣡ श्री꣢णीतन । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रे꣢ दधातन ॥१४४६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥१४४६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न꣡म꣢꣯सा । इत् । उ꣡प꣢꣯ । सीदत । दध्ना꣢ । इत् । अ꣣भि꣢ । श्री꣣णीतन । श्री꣣णीत । न । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । द꣣धातन । दधात । न ॥१४४६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1446 | (कौथोम) 6 » 3 » 3 » 3 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे साथियो ! तुम (नमसा इत्) नमस्कार के साथ ही (उप सीदत) परमात्मा की उपासना करो। उस सात्त्विक नमस्कार को (दध्ना इत्) रजोगुण से उत्पन्न कर्म के साथ मिलाकर (अभि श्रीणीतन) परिपक्व करो। (इन्दुम्) परमात्मा के पास से प्रस्रुत हुए आनन्द-रस को (इन्द्रे) जीवात्मा में (दधातन) धारण कर लो ॥३॥ यहाँ एक कर्ता कारक के साथ उपसीदत, श्रीणीतन और दधातन इन अनेक क्रियाओं का योग होने से दीपक अलङ्कार है। दकार आदि का अनुप्रास है। गोदुग्ध सात्त्विक होता है, दही खट्टा होने से राजस, अतः दधि से यहाँ कर्म सूचित होता है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

केवल उपासना से अभीष्टसिद्धि नहीं होती, उसके साथ कर्मयोग भी अपेक्षित होता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि मानवाः प्रेर्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सखायः ! यूयम् (नमसा इत्) नमस्कारेणैव सह (उप सीदत) परमात्मानम् उपाध्वम्। तं सात्त्विकं नमस्कारम् (दध्ना इत्) रजोगुणोत्पन्नेन कर्मणा खलु (अभिश्रीणीतन) परिपक्वं कुरुत। [अभिपूर्वः श्रीञ् पाके क्र्यादिः। तस्य तनबादेशः।] (इन्दुम्) परमात्मनः सकाशात् प्रस्रुतम् आनन्दरसम् (इन्द्रे) जीवात्मनि (दधातन) धत्त ॥३॥ अत्रैकेन कर्तृकारकेण उपसीदत, श्रीणीतन, दधातन इत्यनेकक्रियायोगाद् दीपकालङ्कारः, दकारद्यनुप्रासश्च। गोदुग्धं सात्त्विकं, दधि चाम्लगुणत्वाद् राजसम्, अतो दध्ना कर्म व्यज्यते ॥३॥

भावार्थभाषाः -

केवलमुपासनया नाभीष्टसिद्धिर्जायते, तया सह कर्मयोगोऽप्यपेक्ष्यते ॥३॥