स꣡ न꣢ ऊ꣣र्जे꣢ व्य꣣꣬३꣱व्य꣡यं꣢ प꣣वि꣡त्रं꣢ धाव꣣ धा꣡र꣢या । दे꣣वा꣡सः꣢ शृ꣣ण꣢व꣣न्हि꣡ क꣢म् ॥१४३८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स न ऊर्जे व्य३व्ययं पवित्रं धाव धारया । देवासः शृणवन्हि कम् ॥१४३८॥
सः꣢ । नः꣣ । ऊर्जे꣢ । वि । अ꣣व्य꣡य꣢म् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । धा꣣व । धा꣡र꣢꣯या । दे꣣वा꣡सः꣢ । शृ꣣ण꣡व꣢न् । हि । क꣣म् ॥१४३८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः उसी विषय में कहते हैं।
हे भक्तवत्सल देव ! (सः) वह प्रसिद्ध आप (नः) हमें (ऊर्जे) बल और प्राणशक्ति देने के लिए हमारे (पवित्रम्) पवित्र (अव्ययम्) अविनाशी अन्तरात्मा को (धारया) आनन्द की धारा के साथ (वि धाव) शीघ्रता से प्राप्त होवो। (देवासः) विद्वान् उपासक लोग (हि) अवश्य (कम्) सुख से (शृणवन्)आपके सन्देशों को सुनें ॥४॥
जगदीश्वर की मैत्री में निवास करते हुए स्तोता जन बल, प्राणशक्ति, आनन्द और दिव्य सन्देश प्राप्त करके धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे भक्तवत्सल देव ! (सः) प्रसिद्धः त्वम् (नः) अस्माकम् (ऊर्जे) बलाय प्राणशक्तये च। [ऊर्ज बलप्राणनयोः, चुरादिः।] अस्माकम् (पवित्रम्) परिपूतम् (अव्ययम्) अविनाशिनमन्तरात्मानम् (धारया) आनन्दधारया सह (वि धाव) प्रद्रव। (देवासः) विद्वांसः उपासकाः, (हि) निश्चयेन (कम्) सुखपूर्वकम् (शृणवन्) तव सन्देशान् शृण्वन्तु ॥४॥
जगदीश्वरस्य सख्ये वसन्तः स्तोतारो बलं प्राणशक्तिमानन्दं च प्राप्य धार्मिकं जीवनं यापयन्ति ॥४॥