स꣣ह꣡स्र꣢धारं वृष꣣भं꣡ प꣢यो꣣दु꣡हं꣢ प्रि꣣यं꣢ दे꣣वा꣢य꣣ ज꣡न्म꣢ने । ऋ꣣ते꣢न꣣ य꣢ ऋ꣣त꣡जा꣢तो विवावृ꣣धे꣡ राजा꣢꣯ दे꣣व꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥१३९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सहस्रधारं वृषभं पयोदुहं प्रियं देवाय जन्मने । ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत् ॥१३९५॥
स꣣ह꣡स्र꣢धारम् । स꣣ह꣡स्र꣢ । धा꣣रम् । वृषभ꣢म् । प꣣योदु꣡ह꣢म् । प꣣यः । दु꣡ह꣢꣯म् । प्रि꣣य꣢म् । दे꣣वा꣡य꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ने । ऋ꣣ते꣡न꣢ । यः । ऋ꣣त꣡जा꣢तः । ऋ꣣त꣢ । जा꣣तः । विवावृधे꣢ । वि꣣ । वावृधे꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣡ह꣢त् ॥१३९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द का विषय है।
(ऋतजातः) सत्य में प्रसिद्ध (यः) जो सोम जगदीश्वर (ऋतेन) सत्य द्वारा (वि वावृधे) विशेषरूप से महिमा में बढ़ रहा है और जो (राजा) विश्व का सम्राट्, (देवः) प्रकाशक, (ऋतम्) सत्यस्वरूप तथा (बृहत्) महान् है, उस (सहस्रधारम्) सहस्र धाराओंवाले, (वृषभम्) मनोरथ पूर्ण करनेवाले, (पयोदुहम्) आनन्दरूप दूध को दुहनेवाले (प्रियम्) तृप्तिप्रदाता जगदीश्वर को (देवाय जन्मने) दिव्य जन्म पाने के लिए (आसोत) दुहो अर्थात् उससे आनन्दरस प्राप्त करो और उसे (परिसिञ्चत) चारों ओर सींचो। यहाँ ‘आसोत, परिसिञ्चित’ पद पूर्वमन्त्र से लाये गये हैं ॥२॥
आनन्दरस के भण्डार परमात्मा से आनन्द-रस परिस्रुत करके मनुष्यों को अपना आत्मा पवित्र करना चाहिए ॥२॥ इस खण्ड में जीवात्मा, परमात्मा और ब्रह्मानन्द-रस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बारहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दविषयमाह।
(ऋतजातः) सत्ये प्रसिद्धः (यः) सोमो जगदीश्वरः (ऋतेन)सत्येन (वि वावृधे) विशेषेण महिम्ना वर्द्धते, यश्च (राजा)विश्वसम्राट्, (देवः) प्रकाशकः, (ऋतम्) सत्यस्वरूपः, (बृहत्) महांश्च वर्तते, तम् (सहस्रधारम्) सहस्रधारमयम्, (वृषभम्) कामवर्षकम्, (पयोदुहम्) आनन्दरूपस्य पयसः प्रदातारम् (प्रियम्) तृप्तिप्रदं जगदीश्वरम् (देवाय जन्मने) दिव्यजन्मप्राप्तये (आ सोत) आनन्दरसं स्रावयत(परिसिञ्चत) परिवर्षत चेति पूर्वेण सम्बन्धः ॥२॥
आनन्दरसागारात् परमात्मन आनन्दरसं परिस्राव्य मानवैः स्वात्मा पावनीयः ॥२॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मनः परमात्मनो ब्रह्मानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥