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न꣡ की꣢ रे꣣व꣡न्त꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ विन्दसे꣣ पी꣡य꣢न्ति ते सुरा꣣꣬श्वः꣢꣯ । य꣣दा꣢ कृ꣣णो꣡षि꣢ नद꣣नु꣡ꣳ समू꣢꣯ह꣣स्या꣢꣫दित्पि꣣ते꣡व꣢ हूयसे ॥१३९०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

न की रेवन्तꣳ सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्वः । यदा कृणोषि नदनुꣳ समूहस्यादित्पितेव हूयसे ॥१३९०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न꣢ । किः꣣ । रेव꣡न्त꣢म् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । वि꣣न्दसे । पी꣡य꣢꣯न्ति । ते꣣ । सुराश्वः꣢ । य꣣दा꣢ । कृ꣣णो꣡षि꣢ । न꣣दनु꣢म् । सम् । ऊह꣣सि । आ꣢त् । इत् । पि꣣ता꣢ । इ꣣व । हूयसे ॥१३९०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1390 | (कौथोम) 6 » 2 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 12 » 2 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा को संबोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र ! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! आप (रेवन्तम्) जिसके पास केवल धन है, दान, परोपकार आदि नहीं है, ऐसे मनुष्य को (सख्याय) मित्रता के लिए (न किः) कभी नहीं (विन्दसे) पाते हो। (ते) वे केवल धनवाले लोग (सुराश्वः) मदिरा-पान द्वारा प्रमत्त हुओं के समान धन के मद से प्रमत्त हुए (पीयन्ति) हिंसा करते हैं, सताते हैं। (यदा) जब, आप धनवान् को (नदनुम्) स्तोत्र नाद गुँजानेवाला स्तोता (कृणोषि) बनाते हो, तब (समूहसि) उसे उत्तम स्थिति प्राप्त करा देते हो, (आत् इत्) उसके अनन्तर उससे आप (पिता इव) पिता के समान (हूयसे) बुलाये जाते हो ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

धन पाकर जो लोग ऐश्वर्य के मद में मस्त नास्तिक होकर न सत्पात्रों में धन का दान करते हैं, न धर्माचार का सेवन करते हैं, न परमेश्वर को उपासते हैं, उनका धन धन नहीं, किन्तु उनके लिए मौत ही सिद्ध होता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं सम्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र ! हे सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! त्वम् रेवन्तम् केवलधनवन्तं दानपरोपकारादिरहितं जनम् (सख्याय) सखिभावाय (न किः) न कदापि (विन्दसे) प्राप्नोषि, (ते) केवलधनवन्तो जनाः (सुराश्वः) सुरापानेन प्रमत्ताः इव धनमदप्रमत्ताः सन्तः। [सुरया श्वयति वर्द्धते प्रमत्तो भवति यः स सुराशूः, ते सुराश्वः।] (पीयन्ति) हिंसन्ति दीनान् जनान् पीडयन्ति। [पीयतिः हिंसाकर्मा। निरु० ४।२५।] (यदा) यस्मिन् काले, त्वम् धनवन्तं जनम् (नदनुम्) स्तोतारम् (कृणोषि) करोषि, तदा (समूहसि) संवहसि, शोभनां स्थितिं प्रापयसि, (आत् इत्) तदनन्तरमेव, तेन त्वम् (पिता इव) जनक इव (हूयसे) स्तूयसे ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

धनं प्राप्य ये जना ऐश्वर्यमदमत्ता नास्तिकाः सन्तो न सत्पात्रेषु धनदानं कुर्वन्ति, न धर्माचारं सेवन्ते, न परमेश्वरमुपासते तेषां धनं धनं न प्रत्युत तत्कृते मृत्युरेव ॥२॥