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देवता: अग्निः ऋषि: भरद्वाजो बार्हस्पत्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡द꣢ग्ने भारत द्यु꣣म꣡दज꣢꣯स्रेण꣣ द꣡वि꣢द्युतत् । शो꣢चा꣣ वि꣡ भा꣣ह्यजर ॥१३८५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत् । शोचा वि भाह्यजर ॥१३८५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣢त् । अ꣣ग्ने । भारत । द्युम꣢त् । अ꣡ज꣢꣯स्रेण । अ । ज꣣स्रेण । द꣡वि꣢꣯द्युतत् । शो꣡च꣢꣯ । वि । भा꣣हि । अजर । अ । जर ॥१३८५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1385 | (कौथोम) 6 » 2 » 2 » 3 | (रानायाणीय) 12 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

इस प्रकार परमेश्वर से प्रार्थना करके अब फिर जीवात्मा को उद्बोधन देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (भारत) शरीर का भरण-पोषण करनेवाले, (अजर) अविनाशी (अग्ने) जीवात्मन् ! तुम (द्युमत्) शोभनीय रूप से (अजस्रेण) अविच्छिन्न तेज से (दविद्युतत्) अतिशय चमकते हुए (उत् शोच) उत्साहित होओ, (वि भाहि) विशेष यशस्वी होओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य का आत्मा जागरूक होकर मन, बुद्धि आदि का अधिष्ठातृत्व करता हुआ तेजस्वी, ब्रह्मवर्चस्वी होता हुआ अपनी कीर्ति फैलाये ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

एवं परमेश्वरं संप्रार्थ्य पुनर्जीवात्मानमद्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (भारत) देहस्य भरणपोषणकर्तः, (अजर) अविनश्वर (अग्ने) जीवात्मन् ! त्वम् (द्युमत्) शोभनीयं यथा स्यात्तथा (अजस्रेण) अविच्छिन्नेन तेजसा (दविद्युतत्) अतिशयेन द्योतमानः सन्। [दाधर्ति०। अ० ७।४।६५ इत्यनेन द्युतेर्यङ्लुगन्तस्य शतरि अभ्यासस्य संप्रसारणाभावः अत्वं विगागमश्च निपात्यते।] (उत् शोच) उत्साहितो भव, (वि भाहि) विशेषेण यशस्वी भव ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्यात्मा जागरूको भूत्वा मनोबुद्ध्यादीनधितिष्ठन् तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी सन् स्वकीर्तिं प्रसारयेत् ॥३॥