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देवता: आत्मा सूर्यो वा ऋषि: सार्पराज्ञी छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

त्रि꣣ꣳश꣢꣫द्धाम꣣ वि꣡ रा꣢जति꣣ वा꣡क्प꣢त꣣ङ्गा꣡य꣢ धीयते । प्र꣢ति꣣ व꣢स्तो꣣र꣢ह꣣ द्यु꣡भिः꣢ ॥१३७८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्रिꣳशद्धाम वि राजति वाक्पतङ्गाय धीयते । प्रति वस्तोरह द्युभिः ॥१३७८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रि꣣ꣳश꣢त् । धा꣡म꣢꣯ । वि । रा꣣जति । वा꣢क् । प꣣तङ्गा꣡य꣢ । धी꣣यते । प्र꣡ति꣢꣯ । व꣡स्तोः꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । द्यु꣡भिः꣢꣯ ॥१३७८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1378 | (कौथोम) 6 » 1 » 11 » 3 | (रानायाणीय) 11 » 3 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ६३२ क्रमाङ्क पर सूर्य और परमात्मा के ही विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ प्राण का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

यह प्राण (त्रिंशद् धाम) दिन-रात के तीसों मुहूर्तों में (वि राजति) शरीर में विराजमान रहता है अर्थात् जाग्रत् अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्त अवस्था तीनों में सक्रिय रहता है, जैसा कि श्रुति है-‘प्राण अन्य सबके सो जाने पर भी खड़ा जागता रहता है’ (अथ० ११।४।२५)। इस (पतङ्गाय) श्वास-उच्छ्वास की गति से पक्षी के समान चेष्टा करनेवाले प्राण के लिए, अर्थात् प्राणयाम के काल में (वाक्) वाणी (धीयते) रोक ली जाती है, क्योंकि प्राणायाम करते हुए भाषण सम्भव नहीं है। (प्रति वस्तोः) प्रतिदिन (अह) निश्चय ही (द्युभिः) दीप्त-सूर्य-किरणों से यह प्राण बलवान् होता है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

दिन-रात शरीर को धारण करता हुआ यह प्राण प्राणियों का महान् उपकार करता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मोपासना, जीवात्मा, प्राण और प्रसङ्गतः विद्युत् का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ ग्यारहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥ ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ६३२ क्रमाङ्के सूर्यपरमात्मनोरेव विषये व्याख्याता। अत्र प्राणविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

एष प्राणः (त्रिंशद् धाम) त्रिंशत् धामानि, अहोरात्रस्य त्रिंशदपि मुहूर्तानि (विराजति) शरीरे विराजमानो भवति, जाग्रदवस्थायां स्वप्नावस्थायां सुषुप्तावस्थायां चापि सक्रियस्तिष्ठति। [‘ऊर्ध्वः॑ सु॒प्तेषु॑ जागार’ अथ० ११।४।२५ इति श्रुतेः।] अस्मै (पतङ्गाय२) श्वासोच्छ्वासगत्या पक्षिवच्चेष्टते प्राणाय। [प्राणो वै पतङ्गः। कौ० ब्रा० ८।४।] (वाक्) वाणी (धीयते) निरुध्यते, प्राणायामकाले भाषणासम्भवात्। (प्रति वस्तोः) प्रत्यहम् (अह) किल (द्युभिः) दीप्तैः सूर्यकिरणैः, एष प्राणो बलवान् जायते इति वाक्यपूर्तिर्विधेया ॥३॥३

भावार्थभाषाः -

रात्रिन्दिवं शरीरं धारयन्नेष प्राणः प्राणिनां महदुपकरोति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मोपासनाया जीवात्मनः प्राणस्य प्रसङ्गतया विद्युतश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥