अ꣣वक्रक्षि꣡णं꣢ वृष꣣भं꣡ य꣢था꣣ जु꣢वं꣣ गां꣡ न च꣢꣯र्षणी꣣स꣡ह꣢म् । वि꣣द्वे꣡ष꣢णꣳ सं꣣व꣡न꣢नमुभयङ्क꣣रं꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठमुभया꣣वि꣡न꣢म् ॥१३६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अवक्रक्षिणं वृषभं यथा जुवं गां न चर्षणीसहम् । विद्वेषणꣳ संवननमुभयङ्करं मꣳहिष्ठमुभयाविनम् ॥१३६१॥
अवक्रक्षि꣡ण꣢म् । अ꣣व । क्रक्षि꣡ण꣢म् । वृ꣣षभ꣢म् । यथा । जु꣡व꣢꣯म् । गाम् । न । च꣣र्षणीस꣡ह꣢म् । च꣣र्षणि । स꣡ह꣢꣯म् । वि꣣द्वे꣡ष꣢णम् । वि꣣ । द्वे꣡ष꣢꣯णम् । सं꣣व꣡न꣢नम् । स꣣म् । व꣡न꣢꣯नम् । उ꣣भयङ्कर꣢म् । उ꣣भयम् । कर꣢म् । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठम् । उ꣣भयावि꣡न꣢म् ॥१३६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि वह परमेश्वर कैसा है।
(अवक्रक्षिणम्) सूर्य आदि लोकों को आकर्षण द्वारा धारण करनेवाले, (वृषभं यथा) वर्षा करनेवाले बादल के समान (जुवम्) उपासकों के पास पहुँचनेवाले, अर्थात् बादल जैसे वर्षाजल के द्वारा भूमि पर पहुँचता है, वैसे ही आनन्द के उपहारों के साथ उपासक के पास पहुँचनेवाले, (गां न) बिजली के समान (चर्षणीसहम्) दुर्जनों को तिरस्कृत करनेवाले, (विद्वेषणम्) द्वेष से रहित, (संवननम्) स्तोताओं से संभजनीय, (उभयङ्करम्) द्युलोक-भूलोक दोनों के रचयिता, (मंहिष्ठम्) सबसे बड़े दानी, (उभयाविनम्) निग्रह और अनुग्रह दोनों गुणों से युक्त इन्द्र परमात्मा की (स्तोत) स्तुति करो। [यहाँ ‘स्तोत’ यह पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
आकाश में बिना ही आधार के आकर्षणरूप डोर से लोक-लोकान्तरों को धारण करनेवाले, सज्जनों को उत्साहित करनेवाले, दुर्जनों को दण्डित करनेवाले, जगत् के रचयिता, परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर की सबको भली-भाँति उपासना करनी चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशः स परमेश्वरोऽस्तीत्याह।
(अवक्रक्षिणम्) अवक्रष्टुं सूर्यादिलोकान् परस्पराकर्षणेन धारयितुं शीलमस्येति अवक्रक्षी तम्, (वृषभं यथा) वर्षकं मेघमिव (जुवम्) गन्तारम्, मेघो यथा वृष्टिजलेन भूमिमुपगच्छति तथा आनन्दोपहारैः उपासकान् उपगन्तारमित्यर्थः, (गां न) विद्युतमिव (चर्षणीसहम्) दुर्जनानां पराभवितारम्, (विद्वेषणम्) विगतद्वेषम्, (संवननम्) स्तोतृभिः संभजनीयम्, (उभयङ्करम्) उभयस्य द्यावापृथिवीरूपस्यकर्त्तारम्, (मंहिष्ठम्) दातृतमम्, (उभयाविनम्२) निग्रहानुग्रहोभयगुणोपेतम्, इन्द्रं परमात्मानं स्तोत इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते। [बहुलं छन्दसि। अ० ७।२।१२२ इत्यत्र ‘छन्दसि विनिप्रकरणेऽष्ट्रामेखलाद्वयोभयरुजाहृदयानां दीर्घश्चेति वक्तव्यम्’ इति वार्तिकेन उभयशब्दान्मत्वर्थे विनि प्रत्ययो दीर्घत्वं च] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
गगने निराधारमाकर्षणरज्जुना लोकलोकान्तराणां धारयिता, सज्जनानामुत्साहयिता, दुर्जनानां दण्डयिता, जगत्स्रष्टा, परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः सर्वैः समुपास्यः ॥२॥