त꣡मिद्व꣢꣯र्धन्तु नो꣣ गि꣡रो꣢ व꣣त्स꣢ꣳ स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीरिव । य꣡ इन्द्र꣢꣯स्य हृद꣣ꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सꣳ सꣳशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदꣳसनिः ॥१३३६॥
त꣢म् । इत् । व꣢र्धन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीः । स꣣म् । शि꣡श्व꣢꣯रीः । इ꣣व । यः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । हृ꣣दꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा का विषय है।
(तम् इत्) उस सोम अर्थात् शान्तिदायक परमात्मा को (नः गिरः) हमारी वाणियाँ (सं वर्धन्तु) बढ़ाएँ, प्रचारित करें। (शिश्वरीः) समृद्ध दूधवाली दुधारू गाएँ (वत्सम् इव) जैसे अपने बछड़े को दूध से बढ़ाती हैं। कैसे परमात्मा को? (यः) जो सोम परमात्मा (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (हृदंसनिः) हृदय में रहनेवाला है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
विद्वान् धार्मिक जनों को चाहिए कि वे अपने उपदेशों से जनता में परमेश्वर के प्रति विश्वास उत्पन्न करें, जिससे सर्वत्र आस्तिकता और धार्मिकता का वातावरण उत्पन्न हो ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मविषयमाह।
(तम् इत्) तं खलु सोमं शान्तिदायकं परमात्मानम् (नः गिरः) अस्माकं वाचः (सं वर्धन्तु) संवर्धयन्तु, संवर्धनं चात्र प्रचारणं ज्ञेयम्। कथमिव ? (शिश्वरीः) वृद्धपयस्का (दोग्ध्र्यो गावः)। [टुओश्वि गतिवृद्ध्योः इत्यस्य रूपम्।] (वत्सम् इव) यथा स्वकीयं वत्सं पयसा वर्धयन्ति तथा। कीदृशम् परमात्मानम् ? (यः) सोमः परमात्मा (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (हृदंसनिः) हृदयसेवी वर्तते। [हृदं हृदयं सनति संभजते यः स हृदंसनिः। द्वितीयाया अलुक्। षण सम्भक्तौ] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
विद्वद्भिर्धार्मिकैर्जनैः स्वोपदेशैः जनतायां परमेश्वरं प्रति विश्वास उत्पादनीयः, येन सर्वत्राऽऽस्तिकताया धार्मिकतायाश्च वातावरणं भवेत् ॥२॥