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प्र꣡ ते꣢ सो꣣ता꣢रो꣣ र꣢सं꣣ म꣡दा꣢य पु꣣न꣢न्ति꣣ सो꣡मं꣢ म꣣हे꣢ द्यु꣣म्ना꣡य꣢ ॥१३३३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र ते सोतारो रसं मदाय पुनन्ति सोमं महे द्युम्नाय ॥१३३३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । ते꣣ । सोता꣡रः꣢ । र꣡स꣢꣯म् । म꣡दा꣢꣯य । पु꣣न꣡न्ति꣢ । सो꣡म꣢꣯म् । म꣣हे꣢ । द्यु꣣म्ना꣡य꣢ । शि꣡शु꣢꣯म् ॥१३३३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1333 | (कौथोम) 5 » 2 » 19 » 2 | (रानायाणीय) 10 » 11 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे विद्यार्थी ! (सोतारः) द्वितीय जन्म देनेवाले गुरु लोग (सोमं रसम्) ज्ञान-रस को (ते) तेरे (मदाय) आनन्द के लिए और (महे द्युम्नाय) महान् यश के लिए (प्र पुनन्ति) भली-भाँति पवित्र कर रहे हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परोपकारक, पवित्र, निर्दोष विद्या से ही मनुष्य आनन्दवान् और यशस्वी होता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे विद्यार्थिन् ! (सोतारः) द्वितीयजन्मदातारो गुरवः (सोमं रसम्) ज्ञानरसम् (ते) तव (मदाय) आनन्दाय (महे द्युम्नाय) महते यशसे च (प्र पुनन्ति) प्रकृष्टतया पवित्रीकुर्वन्ति ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परोपकारिण्या पवित्रया निष्कलुषयैव विद्यया मनुष्य आनन्दी यशस्वी च जायते ॥२॥