आ꣢ घा꣣ ये꣢ अ꣣ग्नि꣢मि꣣न्ध꣡ते꣢ स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ ब꣣र्हि꣡रा꣢नु꣣ष꣢क् । ये꣢षा꣣मि꣢न्द्रो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥१३३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ घा ये अग्निमिन्धते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥१३३॥
आ꣢ । घा꣣ । ये꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्ध꣡ते꣢ । स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ । ब꣣र्हिः꣢ । अ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । ये꣡षा꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यु꣡वा꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । ॥१३३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
परमात्मा की मित्रता का और अग्नि प्रदीप्त करने का क्या लाभ है, यह बताते हैं।
ये जो लोग (घ) निश्चय ही (अग्निम्) यज्ञ की अग्नि, उत्साह की अग्नि, संकल्प की अग्नि, महत्त्वाकांक्षा की अग्नि और आत्मा की अग्नि को (आ इन्धते) अभिमुख होकर प्रदीप्त करते हैं और (येषाम्) जिन लोगों का (युवा) सदा युवा अर्थात् सदा सशक्त रहनेवाला (इन्द्रः) पराक्रमशाली परमात्मा (सखा) सहायक हो जाता है, वे लोग (आनुषक्) क्रमशः (बर्हिः) कुशा आदि यज्ञ साधनों और यज्ञ को (स्तृणन्ति) फैलाते हैं अर्थात् निरन्तर यज्ञकर्मों में संलग्न रहते हैं ॥९॥
जिनके हृदय में अग्नि जाज्वल्यमान नहीं है, वे लोग आलसी होकर जीवन बिताते हैं। वे तो स्वार्थसाधन में भी मन्द होते हैं, फिर परार्थसाधनरूप यज्ञ-कर्म करने का तो कहना ही क्या है। परन्तु जो नित्य अग्निहोत्र की अग्नि को और उससे प्रेरणा प्राप्त कर उत्साह, संकल्प और महत्वाकांक्षा की अग्नि को तथा आत्मारूप अग्नि को प्रज्वलित करते हैं और जो सदा युवक, दूसरों की दुःख-दरिद्रता को दूर करनेवाले, शत्रुविजयी, सृष्टियज्ञकर्ता, शतक्रतु इन्द्र परमेश्वर को सखा बना लेते हैं, वे सदा ही मन में स्फूर्ति, कर्मण्यता और उदारता को धारण करते हुए निरन्तर परोपकार के कामों में लगे रहते हैं ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
इन्द्रस्य सखित्वेनाग्निसमिन्धनेन च को लाभ इत्याह।
(ये) जनाः (घ) निश्चयेन। संहितायाम् ऋचि तु नु घ० अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः। (अग्निम्) यज्ञाग्निम्, उत्साहाग्निं, संकल्पाग्निं, महत्त्वाकांक्षाया अग्निम्, आत्माग्निं वा (आ इन्धते) आभिमुख्येन प्रदीपयन्ति, (येषां) येषां च जनानाम् (युवा) नित्यतरुणः, सदा सशक्तः (इन्द्रः) पराक्रमशाली परमेश्वरः (सखा) सहायकः जायते, ते जनाः (आनुषक्) आनुपूर्व्येण। आनुषग् इति नाम अनुपूर्वस्य, अनुषक्तं भवति। निरु० ६।१४। (बर्हिः) दर्भासनं तदुपलक्षितं यज्ञं, यज्ञसाधनानि वा (स्तृणन्ति) प्रसारयन्ति, स्तॄञ् आच्छादने, क्र्यादिः। निरन्तरं यज्ञकर्मसु संलग्ना भवन्तीत्याशयः ॥९॥२
येषां हृदयेऽग्निर्न जाज्वलीति, ते निष्क्रिया अलसाः सन्तो जीवनं यापयन्ति। ते तु स्वार्थसाधनेऽपि मन्दाः, किमुत परार्थसाधनरूपयज्ञकर्मकरणे। परं ये नित्यमग्निहोत्राग्निं, ततश्च प्रेरणां प्राप्योत्साहाग्निं, संकल्पाग्निं, महत्त्वाकांक्षाया अग्निम् आत्माग्निं च प्रदीपयन्ति, ये च नित्यतरुणं, परेषां दुःखदारिद्र्यविदारकं, शत्रुविजेतारं, सृष्टियज्ञकर्त्तारं, शतक्रतुमिन्द्रं परमेश्वरं सखायं कुर्वन्ति, ते सदैव मनसि स्फूर्तिं कर्मण्यतामुदारतां च धारयन्तः सततं परोपकारकर्मसु संयुज्यन्ते ॥९॥