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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: मनुराप्सवः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣢न्दो꣣ धा꣡रा꣢भि꣣रो꣡ज꣢सा । आ꣢ क꣣ल꣢शं꣣ म꣡धु꣢मान्त्सोम नः सदः ॥१३२६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा । आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः ॥१३२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्दो꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯भिः । ओ꣡ज꣢꣯सा । आ । क꣣ल꣡श꣢म् । म꣡धु꣢꣯मान् । सो꣣म । नः । सदः ॥१३२६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1326 | (कौथोम) 5 » 2 » 17 » 1 | (रानायाणीय) 10 » 11 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५७१ क्रमाङ्क पर ब्रह्मानन्द-रस के विषय में की गयी थी। यहाँ भी उसी विषय का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) रस से भिगोनेवाले परमेश्वर ! (देववीतये) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (धाराभिः) आनन्द की धाराओं के साथ (ओजसा) वेगपूर्वक (पवस्व) हमारे अन्तःकरण में बहो। हे (सोम) रस के भण्डार ! (मधुमान्) मधुर आप (नः) हमारे (कलशम्) जीवात्मारूप कलश में (आ सदः) आकर स्थित होवो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा के ध्यान में मग्न योगी लोग परमात्मा के पास से अपनी मनोभूमि में झरते हुए आनन्द-रस के झरने का साक्षात् अनुभव करते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७१ क्रमाङ्के ब्रह्मानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) रसेन आर्द्रीकर्तः परमेश ! त्वम् (देववीतये) दिव्यगुणानां प्राप्तये (धाराभिः) आनन्दधाराभिः (ओजसा) वेगेन (पवस्व) अस्मदन्तःकरणे प्रक्षर। हे (सोम) रसागार ! (मधुमान्) मधुमयः त्वम् (नः) अस्माकम् (कलशम्) जीवात्मरूपम् (आ सदः) आसीद। [सदेर्विध्यर्थे लुङि रूपम्] ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मध्यानमग्ना योगिनः परमात्मनः सकाशात् स्वमनोभूमौ निर्झरन्तमानन्दरसनिर्झरं साक्षादनुभवन्ति ॥१॥