य꣡त꣢ इन्द्र꣣ भ꣡या꣢महे꣣ त꣡तो꣢ नो꣣ अ꣡भ꣢यं कृधि । म꣡घ꣢वञ्छ꣣ग्धि꣢꣫ तव꣣ त꣡न्न꣢ ऊ꣣त꣢ये꣣ वि꣢꣫ द्विषो꣣ वि꣡ मृधो꣢꣯ जहि ॥१३२१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि । मघवञ्छग्धि तव तन्न ऊतये वि द्विषो वि मृधो जहि ॥१३२१॥
य꣡तः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । भ꣡या꣢꣯महे । त꣡तः꣢꣯ । नः꣣ । अ꣡भ꣢꣯यम् । अ । भ꣣यम् । कृ꣡धि । मघ꣢꣯वन् । श꣣ग्धि꣢ । त꣡व꣢꣯ । तत् । नः꣣ । ऊत꣡ये꣢ । वि । द्वि꣡षः꣢꣯ । वि । मृ꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि ॥१३२१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक २७४ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य से प्रार्थना है।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर वा विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्यवर ! हम (यतः) जिस अज्ञान, पाप, दुर्व्यसन, चोर, बाघ आदि से (भयामहे) डरते हैं, (ततः) उससे (नः) हमें (अभयम्) निर्भयता (कृधि) प्रदान करो। हे (मघवन्) निर्भयतारूप धन के धनी ! (शग्धि) हमें शक्ति दो। (तव) आपका (तत्) वह अभयदान (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिए होवे। आप (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को (वि) विनष्ट कर दो, (मृधः) हिंसावृत्तियों को वा काम, क्रोध आदियों को (वि जहि) विनष्ट कर दो ॥१॥
जैसे जगदीश्वर अपने उपासकों को निर्भय करता है, वैसे ही आचार्य को भी चाहिए कि वह विद्या पढ़ाने के साथ-साथ निर्भयता आदि गुण भी विद्यार्थियों के अन्दर उत्पन्न करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २७४ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानं च सम्बोधिता। अत्र जगदीश्वर आचार्यश्च प्रार्थ्यते।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर विद्यैश्वर्ययुक्त आचार्यप्रवर वा ! वयम् (यतः) यस्माद् अज्ञानपापदुर्व्यसनचौरव्याघ्रादिकात् (भयामहे) त्रस्यामः (ततः) तस्मात् (नः) अस्माकम् (अभयम्) निर्भयत्वम् (कृधि) कुरु। हे (मघवन्) अभयत्वधनेन धनवन् ! (शग्धि) अस्मान् शक्तान् कुरु। (तव) त्वदीयम् (तत्) अभयदानम् (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाय भवतु इति शेषः। त्वम् (द्विषः) द्वेषवृत्तीः द्वेषकर्तॄन् पापादीन् वा (वि) विजहि, (मृधः) हिंसावृत्तीः संग्रामकारिणः कामक्रोधादीन् वा (वि जहि) विनाशय ॥१॥
यथा जगदीश्वरः स्वोपासकान् निर्भयान् करोति तथैवाचार्यो विद्याध्यापनेन साकं निर्भयतादिगुणानपि विद्यार्थिषूत्पादयेत् ॥१॥