क꣣वि꣡र्वे꣢ध꣣स्या꣡ पर्ये꣢꣯षि꣣ मा꣡हि꣢न꣣म꣢त्यो꣣ न꣢ मृ꣣ष्टो꣢ अ꣣भि꣡ वाज꣢꣯मर्षसि । अ꣣पसे꣡ध꣢न्दुरि꣣ता꣡ सो꣢म नो मृड घृ꣣ता꣡ वसा꣢꣯नः꣣ प꣡रि꣢ यासि नि꣣र्णि꣡ज꣢म् ॥१३१८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)कविर्वेधस्या पर्येषि माहिनमत्यो न मृष्टो अभि वाजमर्षसि । अपसेधन्दुरिता सोम नो मृड घृता वसानः परि यासि निर्णिजम् ॥१३१८॥
क꣣विः꣢ । वे꣣धस्या꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । मा꣡हि꣢꣯नम् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । मृ꣣ष्टः꣢ । अ꣣भि꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । अ꣣र्ष꣡सि । अपसे꣡ध꣢न् । अ꣣प । से꣡ध꣢꣯न् । दु꣣रिता꣢ । दुः꣣ । इता꣢ । सो꣣म । नः । मृड । घृता꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । प꣡रि꣢꣯ । या꣣सि । निर्णि꣡ज꣢म् । निः꣣ । नि꣡ज꣢꣯म् ॥१३१८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा को उद्बोधन दिया गया है।
हे सोम ! हे शान्तिप्रिय जीवात्मन् ! (कविः) मेधावी तू (वेधस्या) महान् कार्य को करने की इच्छा से (माहिनम्) महान् परमात्मा की (पर्येषि) उपासना कर। (मृष्टः) ब्रुश से रगड़कर साफ़ किये गये (अत्यः न) घोड़े के समान (मृष्टः) यम, नियम आदि से शोधित तू, विजयप्राप्ति के लिए (वाजम् अभि) देवासुरसङ्ग्राम में (अर्षसि) जा। हे (सोम) जीवात्मन् ! (दुरिता) दुर्गुण, दुर्व्यसन आदियों को (अपसेधन्) दूर करता हुआ तू (नः) हमें (मृड) सुखी करऔर (घृता) तेजों को (वसानः) धारण करता हुआ तू (निर्णिजम्) शुद्ध रूप को (परियासि) प्राप्त कर ॥ सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। सोम ओषधि का रस (माहिनम्) महान् द्रोणकलश में जाता है, शुद्ध किया जाकर (वाजम्) यज्ञ में ले जाया जाता है, पान करने पर (दुरितानि) दुर्विचारों को दूर करके सद्विचारों को उत्तेजित करता है और (घृता) जलों के साथ मिलता है ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥
मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा की उपासना, देवासुरसङ्ग्राम में विजय, दुरितों के ध्वंस, पुण्यकर्मों की समृद्धि और तेज को धारण करके योग-क्षेम को सिद्ध करें ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा के ध्यान से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति का, जीवात्मा के उद्बोधन का और प्रसङ्गतः सोम ओषधि के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मानमुद्बोधयति।
हे सोम ! हे शान्तिप्रिय जीवात्मन् ! (कविः) मेधावी त्वम् (वेधस्या) महाकार्यविधानेच्छया। [वेधाः इवाचरति वेधस्यति, ततो ‘वेधस्या’ इति।] (माहिनम्) महान्तम् परमात्मानम्। [माहिनः इति महन्नाम। निघं० ३।३।] (पर्येषि) उपास्व। (मृष्टः) संघर्षणेन स्वच्छीकृतः (अत्यः न) अश्वः इव (मृष्टः) यमनियमादिभिः शोधितः त्वम्, विजेतुम् (वाजम् अभि) देवासुरसंग्रामं प्रति (अर्षसि) गच्छ। हे (सोम) जीवात्मन् ! (दुरिता) दुरितानि दुर्गुणदुर्व्यसनादीनि (अपसेधन्) दूरीकुर्वन् त्वम् (नः) अस्मान् (मृड) सुखय, किञ्च (घृता) घृतानि तेजांसि (वसानः) धारयन् त्वम् (निर्णिजम्) शुद्धं रूपम् (परि यासि) परिगच्छ। [निर्णिक् इति रूपनाम। निघं० ३।७] ॥ सोमौषधिरसपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः। सोमौषधिरसः माहिनम् महान्तं द्रोणकलशं परियाति, शोधितश्च सन् वाजं यज्ञं नीयते, पानेन दुरितविचारान् दूरीकृत्य सद्विचारानुत्तेजयति, घृतानि उदकानि च धारयति, तैः सम्मिलतीत्यर्थः ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
मनुष्यैः परमात्मोपासनेन, देवासुरसंग्रामे विजयेन, दुरितध्वंसनेन पुण्यकर्मसमर्द्धनेन, तेजोधारणेन च योगक्षेमौ साधनीयौ ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मध्यानेन ब्रह्मानन्दप्राप्तिविषयस्य जीवात्मोद्बोधनस्य प्रसङ्गतश्च सोमौषधिविषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥