ए꣣ष꣡ वसू꣢꣯नि पिब्द꣣नः꣡ परु꣢꣯षा꣣ ययि꣣वा꣡ꣳ अति꣢꣯ । अ꣢व꣣ शा꣡दे꣢षु गच्छति ॥१२७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष वसूनि पिब्दनः परुषा ययिवाꣳ अति । अव शादेषु गच्छति ॥१२७२॥
ए꣣षः꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । पि꣣ब्दनः꣢ । प꣡रु꣢꣯षा । य꣣यि꣢वान् । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । शा꣡दे꣢꣯षु । ग꣣च्छति ॥१२७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कैसा जीवात्मा कहाँ परमात्मा का अनुभव करता है।
(पिब्दनः) जो स्वयं उपासना रस का स्वाद लेता हुआ उसे दूसरों को भी देता है, ऐसा (एषः) यह जीवात्मा (परुषा) कठोर परिणामवाले (वसूनि) भौतिक धनों को (अति ययिवान्) छोड़कर (शादेषु) शाद्वलस्थलों में (अवगच्छति) परमात्मा का अनुभव करता है ॥७॥
घास आदि से हरे-भरे रमणीक प्रदेशों में परमात्मा की विभूति का दर्शन सुगम होता है। कहा भी है—पर्वतों के एकान्त में, नदियों के सङ्गम पर ध्यान द्वारा सर्वज्ञ परमेश्वर प्रकट होता है (साम० १४३) ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशो जीवात्मा कुत्र परमात्मानमनुभवतीत्याह।
(पिब्दनः२) पिबन् स्वयमुपासनारसमास्वादयन् तम् अन्येभ्यो ददाति यः सः३ (एषः) अयं जीवात्मा (परुषा) परुषाणि परिणतौ कठोराणि (वसूनि) भौतिकधनानि (अति ययिवान्) अतिक्रान्तवान् सन् (शादेषु) शाद्वलेषु शष्पप्रदेशेषु४(अवगच्छति) परमात्मानं जानाति अनुभवति ॥७॥
शष्पादिना हरितेषु रमणीकेषु स्थलेषु परमात्मनो विभूतिदर्शनं सुकरं भवति। तथा च श्रुतिः—उ꣣पह्वरे꣡ गि꣢री꣣णां꣡ स꣢ङ्ग꣣मे꣡ च꣢ न꣣दी꣡ना꣢म् धि꣣या विप्रा अजायत (साम० १४३) इति ॥७॥
 
                  