म꣡त्सि꣢ वा꣣यु꣢मि꣣ष्ट꣢ये꣣ रा꣡ध꣢से नो꣣ म꣡त्सि꣢ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा पू꣣य꣡मा꣢नः । म꣢त्सि꣣ श꣢र्धो꣣ मा꣡रु꣢तं꣣ म꣡त्सि꣢ दे꣣वा꣢꣫न्मत्सि꣣ द्या꣡वा꣢पृथि꣣वी꣡ दे꣢व सोम ॥१२५४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मत्सि वायुमिष्टये राधसे नो मत्सि मित्रावरुणा पूयमानः । मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि द्यावापृथिवी देव सोम ॥१२५४॥
म꣡त्सि꣢꣯ । वा꣣यु꣢म् । इ꣣ष्ट꣡ये꣢ । रा꣡ध꣢꣯से । नः꣣ । म꣡त्सि꣢꣯ । मि꣣त्रा꣢ । मि꣣ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । पू꣣य꣡मा꣢नः । म꣡त्सि꣢꣯ । श꣡र्धः꣢꣯ । मा꣡रु꣢꣯तम् । म꣡त्सि꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । म꣡त्सि꣢꣯ । द्या꣡वा꣢꣯ । पृ꣣थि꣡वीइति꣢ । दे꣣व । सोम ॥१२५४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा का कर्म वर्णित है।
हे (देव) आनन्ददायक, (सोम) संसार के रचयिता परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (इष्टये) अभीष्ट-सिद्धि के लिए और (राधसे) ऐश्वर्य के लिए (वायुम्) पवन को (मत्सि) हर्षित करते हो, (पूयमानः) प्राप्त किये जाते हुए आप (मित्रावरुणा) प्राण-अपान को (मत्सि) हर्षित करते हो, (मारुतं शर्धः) सैनिकों के बल को (मत्सि) हर्षित करते हो, (देवान्) विद्वान् जनों को (मत्सि) हर्षित करते हो, (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (मत्सि) हर्षित करते हो ॥२॥
जो यह प्रकृति में सूर्य, चन्द्र, पवन, भूमि आदियों में, समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदियों में और शरीर में जीवात्मा, मन, बुद्धि, प्राण आदियों में हर्ष, स्फूर्ति और कर्मनिष्ठा दिखायी देती है, वह सब परमात्मा द्वारा ही की हुई है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः कर्म वर्णयति।
हे (देव) मोदप्रद (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (राधसे) ऐश्वर्याय च (वायुम्) पवनम् (मत्सि) हर्षयसि, (पूयमानः) प्राप्यमाणः त्वम्। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (मित्रावरुणा) प्राणापानौ (मत्सि) हर्षयसि। (मारुतं शर्धः) सैनिकानां बलम्। [शर्ध इति बलनाम। निघं० २।९।] (मत्सि) हर्षयसि, (देवान्) विद्वज्जनान् (मत्सि) हर्षयसि, (द्यावापृथिवी) दिवं धरित्रीं च (मत्सि) हर्षयसि। [मदी हर्षग्लेपनयोः भ्वादिः। बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुक्] ॥२॥
यदिदं प्रकृतौ सूर्यचन्द्रपवनभूम्यादिषु, समाजे ब्रह्मक्षत्रविडादिषु, देहे च जीवात्ममनोबुद्धिप्राणापानादिषु हर्षः स्फूर्तिः कर्मनिष्ठादि च दृश्यते तत्सर्वं परमात्मकृतमेव ॥२॥