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देवता: अग्निः ऋषि: उशना काव्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

क꣣वि꣡मि꣢व प्र꣣श꣢ꣳस्यं꣣ यं꣢ दे꣣वा꣢स꣣ इ꣡ति꣢ द्वि꣣ता꣢ । नि꣡ मर्त्ये꣢꣯ष्वाद꣣धुः꣢ ॥१२४५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

कविमिव प्रशꣳस्यं यं देवास इति द्विता । नि मर्त्येष्वादधुः ॥१२४५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क꣣वि꣢म् । इ꣣व । प्रश꣡ꣳस्य꣢म् । प्र꣣ । श꣡ꣳस्य꣢꣯म् । यम् । दे꣣वा꣡सः꣢ । इ꣡ति꣢꣯ । द्वि꣣ता꣢ । नि । म꣡र्त्ये꣢꣯षु । आ꣡दधुः꣢ । आ꣣ । दधुः꣢ ॥१२४५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1245 | (कौथोम) 5 » 1 » 18 » 2 | (रानायाणीय) 9 » 9 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और राजा का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (कविम् इव) कवि के समान (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीय (यम्) जिस अग्नि अर्थात् अग्रनायक परमात्मा को (देवासः इति) दिव्य गुणोंवाले योग-प्रशिक्षक वा योगी लोग (द्विता) पालनार्थ तथा शत्रुओं से रक्षार्थ इन दो प्रयोजनों के लिए (मर्त्येषु) योगाभ्यासी मनुष्यों में (नि आदधुः) योगविधि से अनुभव कराते हैं, उसकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ ‘स्तुषे’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है ॥] द्वितीय—राजा के पक्ष में। (कविम् इव) कवि के समान (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीय (यम्) जिस अग्नि अर्थात् अग्रनायक राजा को (देवासः इति) दिव्य गुणोंवाले पुरोहित लोग (द्विता) प्रजा के पालनार्थ तथा शत्रुओं से रक्षार्थ दोनों कर्मों के लिए (मर्त्येषु) प्रजाजनों के बीच (नि आदधुः) राजगद्दी पर स्थित करते हैं, उसकी मैं (स्तुषे) गुण-वर्णन-रूप स्तुति करता हूँ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमेश्वर लोगों को पालता और उनके शत्रुओं को पराजित करता है, वैसे ही वही राष्ट्र में राजा होने योग्य है, जो प्रजाओं की पालना तथा शत्रुओं का पराजय कर सकता हो ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मनृपती वर्ण्येते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(कविम् इव) काव्यकारमिव (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीयम् (यम्) अग्निम् अग्रनायकं परमात्मानं राजानं वा (देवासः इति) दिव्यगुणाः योगप्रशिक्षका योगिनः पुरोहिताः वा (द्विता) पालनार्थं शत्रुभ्यस्त्राणार्थं चेति द्वाभ्यां प्रयोजनाभ्याम् (मर्त्येषु) योगाभ्यासिषु मनुष्येषु राष्ट्रवासिषु प्रजासु वा (नि आदधुः) योगविधिना अनुभावयन्ति राजत्वेन स्थापयन्ति वा, तमहं ‘स्तुषे’ इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा ब्रह्माण्डस्य सम्राट् परमेश्वरो जनान् पालयति तेषां शत्रूंश्च पराजयते तथैव राष्ट्रेऽपि स एव राजा भवितुं योग्यो यः प्रजाः पालयितुं शत्रूंश्च पराजेतुं शक्नोति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।८४।२, ‘क॒विमि॑व॒ प्रचे॑तसं॒ यं दे॒वासो॒ अध॑ द्वि॒ता’ इति पाठः।