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दि꣣वो꣡ नाभा꣢꣯ विचक्ष꣣णो꣢ऽव्या꣣ वा꣡रे꣢ महीयते । सो꣢मो꣣ यः꣢ सु꣣क्र꣡तुः꣢ क꣣विः꣢ ॥११९९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

दिवो नाभा विचक्षणोऽव्या वारे महीयते । सोमो यः सुक्रतुः कविः ॥११९९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि꣣वः꣢ । ना꣡भा꣢꣯ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रे꣢꣯ । म꣣हीयते । सो꣡मः꣢꣯ । यः । सु꣣क्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ । क꣣विः꣢ ॥११९९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1199 | (कौथोम) 5 » 1 » 4 » 4 | (रानायाणीय) 9 » 3 » 1 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा की महिमा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(विचक्षणः) सर्वद्रष्टा (सोमः) परमेश्वर, (यः) जो (सुक्रतुः) शुभकर्म करनेवाला और (कविः) जगद्रूप दृश्य काव्य का तथा वेदरूप श्रव्य काव्य का कवि है, वह (दिवः) तेजस्वी जीवात्मा के (नाभा) केन्द्रभूत प्राण में और (अव्याः वारे) प्रकृति के बाल के समान विद्यमान अर्थात् प्रकृति से निकले हुए व्यक्त जगत् में (महीयते) महिमा प्राप्त करता है ॥ अथर्व० १०।८।३१ में कहा गया है कि अवि नाम की एक देवता है, जो ऋत से परिवृत है, उसी के रूप से ये वृक्ष हरे और हरित माला को धारण करनेवाले बने हुए हैं। इस प्रमाण से अवि शब्द प्रकृतिवाचक होता है ॥४॥

भावार्थभाषाः -

जड़-चेतनरूप सब जगत् में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान, सर्वज्ञ सब कर्मों को करनेवाला जगदीश्वर सर्वत्र कीर्ति प्राप्त किये हुए है ॥४॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनो महिमानं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(विचक्षणः) सर्वद्रष्टा (सोमः) परमेश्वरः (यः सुक्रतुः) शुभकर्मा, (कविः) जगद्रूपस्य दृश्यकाव्यस्य वेदरूपस्य श्रव्यकाव्यस्य च कर्ता वर्तते, सः (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (नाभा) नाभौ, केन्द्रभूते प्राणे। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति सप्तम्या डाऽऽदेशः।] किञ्च (अव्याः वारे) अवेः प्रकृतेः बालवद् विद्यमाने प्रकृत्या आविर्भूते व्यक्ते जगतीत्यर्थः, (महीयते) महिमानं प्राप्नोति। [महीङ् पूजायाम्, कण्ड्वादिः। अवि॒र्वै नाम॑ दे॒वत॒र्तेना॑स्ते॒ परी॑वृता। तस्या॑ रू॒पेणे॒मे वृ॒क्षा हरि॑ता॒ हरि॑तस्रजः ॥ अथ० १०।८।३१ इति प्रामाण्याद् अविशब्दस्य प्रकृतिवाचकत्वम्] ॥४॥

भावार्थभाषाः -

जडचेतनात्मके सर्वस्मिन्नपि जगत्यन्तर्यामितया विद्यमानः सर्वज्ञः सर्वकर्मा जगदीश्वरः सर्वत्र कीर्तिं लभते ॥४॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१२।४, ‘विचक्ष॒णोऽव्यो॒ वारे॑’ इति पाठः।