म꣣घो꣢न꣣ आ꣡ प꣢वस्व नो ज꣣हि꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षः꣢ । इ꣢न्दो꣣ स꣡खा꣢य꣣मा꣡ वि꣡श ॥११८४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मघोन आ पवस्व नो जहि विश्वा अप द्विषः । इन्दो सखायमा विश ॥११८४॥
मघो꣡नः꣢ । आ । प꣣वस्व । नः । जहि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । इ꣡न्दो꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯यम् । स । खा꣣यम् । आ꣢ । वि꣣श ॥११८४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा को सम्बोधन करते हैं।
हे (इन्दो) तेजस्वी वा आनन्दरस से भिगोनेवाले परमात्मन् ! आप (मघोनः) दानी (नः) हम लोगों के पास (आ पवस्व) आओ, (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को (अप जहि) मार भगाओ। (सखायम्) अपने सखा जीवात्मा में (आ विश) प्रविष्ट होवो ॥७॥
तभी परमेश्वर की पूजा सफल है, जब उपासक सब द्वेषभावों को अपने अन्दर से निकालकर सबके साथ मित्र के समान व्यवहार करे ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मा सम्बोध्यते।
हे (इन्दो) तेजस्विन् आनन्दरसेन क्लेदक परमात्मन् ! त्वम्(मघोनः) दानवतः। [मघं मंहतेर्दानकर्मणः। निरु० १।७।] (नः) अस्मान् (आ पवस्व) आयाहि, (विश्वाः) सर्वाः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (अपजहि) विनाशय। (सखायम्) स्वमित्रभूतं जीवात्मानम् (आविश) प्रविश ॥७॥
तदैव परमेश्वरस्य पूजा सफला यदोपासकः सर्वान् द्वेषभावानपनीय विश्वैर्मित्रवद् व्यवहरेत् ॥७॥