स꣢ वा꣣꣬ज्य꣢꣯क्षाः स꣣ह꣡स्र꣢रेता अ꣣द्भि꣡र्मृ꣢जा꣣नो꣡ गोभिः꣢꣯ श्रीणा꣣नः꣢ ॥११६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स वाज्यक्षाः सहस्ररेता अद्भिर्मृजानो गोभिः श्रीणानः ॥११६१॥
सः । वा꣣जी꣢ । अ꣣क्षारि꣡ति꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢रेताः । स꣣ह꣡स्र꣢ । रे꣣ताः । अद्भिः꣢ । मृ꣣जानः꣢ । गो꣡भिः꣢꣯ । श्री꣣णानः꣢ ॥११६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय को कहा गया है।
(वाजी) वेगवान्, (सहस्ररेताः) सहस्र वीर्यवाला, (अद्भिः) शुभकर्मों से (मृजानः) जीवात्मा को अलंकृत करता हुआ, (गोभिः) विवेक के प्रकाशों से (श्रीणानः) जीवात्मा को परिपक्व करता हुआ (सः) वह सोम अर्थात् ज्ञान-रस (अक्षाः) आचार्य के पास से क्षरित होता है ॥२॥
आचार्य के पास से जो ज्ञान-रस शिष्य द्वारा प्राप्त किया जाता है, वह उसके कर्मों को शुद्ध करता है और उसके अन्तरात्मा को परिपक्व करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(वाजी) वेगवान् (सहस्ररेताः) सहस्रवीर्यः (अद्भिः) शुभैः कर्मभिः (मृजानः) जीवात्मानम् अलङ्कुर्वन् (गोभिः) विवेकप्रकाशैः (श्रीणानः) जीवात्मानं परिपक्वं कुर्वन् (सः) असौ सोमः ज्ञानरसः (अक्षाः) आचार्यसकाशात् क्षरति ॥२॥
आचार्यसकाशात् यो ज्ञानरसः शिष्येण प्राप्यते स तस्य कर्माणि शोधयति तस्यान्तरात्मानं परिपक्वं च करोति ॥२॥