प्र꣡ वो꣢ मि꣣त्रा꣡य꣢ गायत꣣ व꣡रु꣢णाय वि꣣पा꣢ गि꣣रा꣢ । म꣡हि꣢क्षत्रावृ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥११४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा । महिक्षत्रावृतं बृहत् ॥११४३॥
प्र꣢ । वः꣣ । मित्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । गा꣣यत । व꣡रु꣢꣯णाय । वि꣣पा꣢ । गि꣣रा꣢ । म꣡हि꣢꣯क्षत्रौ । म꣡हि꣢꣯ । क्ष꣣त्रौ । ऋत꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥११४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में मित्र-वरुण नाम से परमात्मा और जीवात्मा का विषय वर्णित है।
हे मनुष्यो ! (वः) तुम (विपा) बुद्धिपूर्ण (गिरा) वाणी से (मित्राय) विपत्ति से त्राण करनेवाले परमात्मा के लिए और (वरुणाय) वरण करने योग्य जीवात्मा के लिए (गायत) गाओ, अर्थात् उनका गुणगान करो। हे (महिक्षत्रौ) महान् बलवाले परमात्मा और जीवात्मा ! तुम दोनों का (ऋतम्) सत्य ज्ञान और सत्य कर्म (बृहत्) महान् है ॥१॥
जीवात्मा परमात्मा के साथ मित्रता स्थापित करके महान् सत्यज्ञानों को पा सकता है और महान् सत्यकर्मों को कर सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ मित्रावरुणनाम्ना परमात्मजीवात्मनोर्विषयमाह।
हे मनुष्याः ! (वः) यूयम् (विपा) मेधापूर्णया। [विप इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (गिरा) वाचा (मित्राय) विपत्त्रात्रे परमात्मने। [मित्रः प्रमीतेस्त्रायते। निरु० १०।२२।] (वरुणाय) वरणीयाय जीवात्मने च (गायत) गानं कुरुत, तत्तद्गुणान् वर्णयत इत्यर्थः। हे (महिक्षत्रौ) महाबलौ परमात्मजीवात्मानौ ! युवयोः (ऋतम्) सत्यं ज्ञानं सत्यं कर्म च (बृहत्) महत् अस्ति ॥१॥२
जीवात्मा परमात्मना सह सख्यं संस्थाप्य महान्ति सत्यज्ञानानि प्राप्तुं महान्ति सत्यकर्माणि च कर्तुं पारयति ॥१॥