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आ꣢ र꣣यि꣡मा सु꣢꣯चे꣣तु꣢न꣣मा꣡ सु꣢क्रतो त꣣नू꣢ष्वा । पा꣢न्त꣣मा꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥११३९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ रयिमा सुचेतुनमा सुक्रतो तनूष्वा । पान्तमा पुरुस्पृहम् ॥११३९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । र꣣यि꣢म् । आ । सु꣣चेतु꣡न꣢म् । सु꣣ । चेतु꣡न꣢म् । आ । सु꣣क्रतो । सु । क्रतो । तनू꣡षु꣢ । आ । पा꣡न्त꣢꣯म् । आ । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् ॥११३९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1139 | (कौथोम) 4 » 2 » 2 » 12 | (रानायाणीय) 8 » 2 » 1 » 12


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमात्मा और आचार्य का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुक्रतो) शुभ ज्ञानवाले वा शुभकर्मोंवाले परमात्मन् और आचार्य ! आप (आ) हमारे पास आओ। हम आपसे (रयिम्) धन (आ) पाना चाहते हैं, (सुचेतुनम्) उत्कृष्ट ज्ञान (आ) पाना चाहते हैं। (तनूषु) शरीरों के हित के लिए, हम आपको (आ) पाना चाहते हैं। (पान्तम्) रक्षा करनेवाले तथा (पुरुस्पृहम्) बहुत स्पृहणीय आपको (आ) पाना चाहते हैं ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा और आचार्य का सेवन करके सबको धन, ज्ञान, जागरूकता, स्वास्थ्य आदि की सम्पत्ति प्राप्त करनी चाहिए ॥१२॥ इस खण्ड में विद्वान् आचार्य, परमात्मा और ब्रह्मानन्द का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ अष्टम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मन आचार्यस्य च विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुक्रतो) सुप्रज्ञ सुकर्मन् परमात्मन् आचार्य वा ! त्वम् (आ) आयाहि। वयम् त्वत् (रयिम्) धनम् (आ) आवृणीमहे। (सुचेतुनम्) सुज्ञानम्। [चिती संज्ञाने, भावे औणादिक उनन्प्रत्ययः।] (आ) आवृणीमहे, (तनूषु) शरीरेषु, शरीराणां हितायेत्यर्थः त्वाम् (आ) आवृणीमहे। (पान्तम्) रक्षकम् (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहणीयं च त्वाम् (आ) आवृणीमहे ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मानमाचार्यं च संसेव्य सर्वैर्धनज्ञानजागरूकतास्वास्थ्यादिसम्पत्तिः प्रापणीया ॥१२॥ अस्मिन् खण्डे विदुष आचार्यस्य परमात्मनो ब्रह्मानन्दस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।३०।