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आ꣢ ते꣣ द꣡क्षं꣢ मयो꣣भु꣢वं꣣ व꣡ह्नि꣢म꣣द्या꣡ वृ꣢णीमहे । पा꣢न्त꣣मा꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥११३७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ ते दक्षं मयोभुवं वह्निमद्या वृणीमहे । पान्तमा पुरुस्पृहम् ॥११३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । ते꣣ । द꣡क्ष꣢꣯म् । म꣣योभु꣡व꣢म् । म꣣यः । भु꣡व꣢꣯म् । व꣡ह्नि꣢꣯म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । वृ꣣णीमहे । पा꣡न्त꣢꣯म् । आ । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् ॥११३७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1137 | (कौथोम) 4 » 2 » 2 » 10 | (रानायाणीय) 8 » 2 » 1 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

दसवीं ऋचा पूर्वार्चिक में ४९८ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य को सम्बोधन किया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रतादायक, विद्या-सद्गुणों आदि के प्रेरक जगदीश्वर वा आचार्य ! हम (ते) आपके (मयोभुवम्) सुखजनक, (वह्निम्) जीवनरथ को आगे ले जानेवाले, (पान्तम्) रक्षक, (पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य (दक्षम्) विद्याबल, धर्मबल और सच्चरित्रता के बल को (अद्य) आज (आ वृणीमहे) पाना चाहते हैं ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा और आचार्य से ग्रहण किये गए विद्या, धर्म, तप, तेज, ब्रह्मवर्चस, सच्चरित्रता आदि के बल शिष्यों का कल्याण करनेवाले होते हैं ॥१०॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

दशमी ऋक् पूर्वार्चिके ४९८ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जगदीश्वर आचार्यश्च सम्बोध्यत।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम पवित्रतादायक विद्यासद्गुणादिप्रेरक जगदीश्वर आचार्य वा ! वयम् (ते) तव (मयोभुवम्) सुखजनकम्, (वह्निम्) जीवनरथस्य वाहकम्, (पान्तम्) रक्षकम्, (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहणीयम् (दक्षम्) विद्याबलं धर्मबलं चारित्र्यबलं च (अद्य) अस्मिन् दिने (आ वृणीमहे) संभजामहे ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मन आचार्याच्च गृहीतानि विद्याधर्मतपस्तेजो ब्रह्मवर्चससच्चारित्र्यादिबलानि शिष्याणां कल्याणकराणि जायन्ते ॥१०॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।२८, साम० ४९८।