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प्र꣢꣫ धारा꣣ म꣡धो꣢ अग्रि꣣यो꣢ म꣣ही꣢र꣣पो꣡ वि गा꣢꣯हते । ह꣣वि꣢र्ह꣣विः꣢षु꣣ व꣡न्द्यः꣢ ॥११२९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र धारा मधो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविःषु वन्द्यः ॥११२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । धा꣡रा꣢꣯ । म꣡धोः꣢꣯ । अ꣣ग्रियः꣢ । म꣣हीः꣢ । अ꣣पः꣢ । वि । गा꣣हते । हविः꣢ । ह꣣वि꣡ष्षु꣢ । व꣡न्द्यः꣢꣯ ॥११२९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1129 | (कौथोम) 4 » 2 » 2 » 2 | (रानायाणीय) 8 » 2 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः विद्वान् का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्रियः) अगुआ श्रेष्ठ, (हविःषु) हवि देनेवालों में (हविः) उत्कृष्ट हवि देनेवाला, (वन्द्यः) वन्दनीय सोम अर्थात् ज्ञान के उत्पादक विद्वान् (महीः अपः) महान् कर्मों को (विगाहते) आलोडित करता है अर्थात् ज्ञान के अनुकूल कर्मों का आचरण करता है। उसके पास से (मधोः) मधुर ज्ञानरस की (धारा) धारा (प्र) प्रवाहित होती है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

वही विद्वान् प्रशंसनीय है, जो ज्ञान के अनुकूल कर्म भी करता है और सबके लिए ज्ञान की मधुर धाराएँ बहाता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि विद्वद्विषय एवोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्रियः) अग्रेभवः श्रेष्ठः, (हविःषु)) हविष्प्रदातृषु (हविः) उत्कृष्टो हविष्प्रदाता, (वन्द्यः) वन्दनीयः सोमः ज्ञानस्य अभिषोता विद्वान् (महीः अपः) महान्ति कर्माणि (वि गाहते) आलोडयति, ज्ञानानुकूलं कर्माण्याचरतीत्यर्थः। तस्य सकाशात् (मधोः) मधुरस्य ज्ञानरसस्य (धारा) नदी (प्र) प्रवहति। [उपसर्ग-बलाद् योग्यक्रियाध्याहारः, संहितायां ‘मधोः’ इत्यस्य विसर्गलोपश्छान्दसः] ॥२॥

भावार्थभाषाः -

स एव विद्वान् प्रशस्यो यो ज्ञानानुकूलं कर्माण्यप्याचरति, सर्वेभ्यश्च ज्ञानस्य मधुरा धाराः प्रवाहयति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।७।२, ‘मध्वो॑’, ‘ह॒विष्षु॒’ इति पाठः।