आ꣡ यद्दुवः꣢꣯ शतक्रत꣣वा꣡ कामं꣢꣯ जरितॄ꣣णा꣢म् । ऋ꣣णो꣢꣫रक्षं꣣ न꣡ शची꣢꣯भिः ॥१०८६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम् । ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥१०८६॥
आ । यत् । दु꣡वः꣢꣯ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । आ꣢ । का꣡म꣢꣯म् । ज꣣रितॄणा꣢म् । ऋ꣣णोः꣢ । अ꣡क्ष꣢꣯म् । न । श꣡ची꣢꣯भिः ॥१०८६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों को करनेवाले इन्द्र अर्थात् जगत्पति परमात्मन् ! उपासकों द्वारा आपके प्रति (यत् दुवः) जो पूजन (आ) किया जाता है, उससे प्रेरित आप (जरीतॄणाम्) स्तोताओं के (कामम्) मनोरथ को (आ ऋणोः) पूर्ण करो, रथ बनानेवाला कारीगर (शचीभिः) बुद्धिकौशलों वा कर्मों से (अक्षं न) जैसे रथचक्रों के मध्य में धुरी की कीली की पूर्ति करता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
जैसे रथ के पहियों के मध्य में धुरी की कीली जोड़े बिना रथ की गति नहीं हो सकती, वैसे ही परमात्मा के कृपायोग के बिना स्तोताओं की मनोरथपूर्ति सम्भव नहीं होती ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।
हे (शतक्रतो) शतकर्मन् इन्द्र जगत्पते परमात्मन् ! उपासकैः, त्वां प्रति (यत् दुवः) यत् परिचरणम् (आ) आक्रियते, तेन प्रेरितः त्वम् (जरितॄणाम्) स्तोतॄणाम् (कामम्) अभिलषितम् (आ ऋणोः) आ पूरय। कथमिव ? (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिश्च (अक्षं न) रथचक्रयोर्मध्ये (यथा) अक्षकीलकम् आपूरयति रथकारः ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
यथा रथचक्रयोर्मध्येऽक्षकीलकयोजनं विना रथगतिर्न संभवति तथैव परमात्मनः कृपायोगेन विना स्तोतॄणामभिलषितपूर्तिर्न संभवा ॥३॥