इ꣣म꣢꣫ꣳ स्तोम꣣म꣡र्ह꣢ते जा꣣त꣡वे꣢दसे꣣ र꣡थ꣢मिव꣣ सं꣡ म꣢हेमा मनी꣣ष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢꣫ हि नः꣣ प्र꣡म꣢तिरस्य स꣣ꣳस꣡द्यग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ मा रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥१०६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इमꣳ स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया । भद्रा हि नः प्रमतिरस्य सꣳसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१०६४॥
इ꣣म꣢म् । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣡र्ह꣢꣯ते । जा꣣त꣡वे꣢दसे । जा꣣त꣢ । वे꣣दसे । र꣡थ꣢꣯म् । इ꣣व । स꣢म् । म꣣हेम । मनी꣡षया꣢ । भ꣣द्रा꣢ । हि । नः꣣ । प्र꣡म꣢꣯तिः । प्र । म꣣तिः । अस्य । सꣳस꣡दि꣢ । स꣣म् । स꣡दि꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । व꣢यम् । त꣡व꣢꣯ ॥१०६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ६६ क्रमाङ्क पर परमेश्वरस्तुति के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य और शिष्य का विषय वर्णित है।
हम (अर्हते) सुयोग्य (जातवेदसे) विद्वान् आचार्य के लिए (मनीषया) मनोयोग के साथ (इमं स्तोमम्) इस श्रद्धा-स्तोत्र को (सं महेम) भली-भाँति पहुँचाएँ, (रथम् इव) जैसे रथ को अन्यत्र पहुँचाते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे किसी पूज्य जन को अपने घर लाने के निमित्त उसके लिए सुन्दर रथ भेजते हैं, ऐसे ही आचार्य को अपने प्रति अनुकूल करने के लिए उसके प्रति श्रद्धा-वचन प्रेरित करें। (अस्य) इस विद्वान् आचार्य की (संसदि) सङ्गति में (नः) हमें (भद्रा हि) कल्याणकारी ही (प्रमतिः) श्रेष्ठ विद्या प्राप्त होती है। हे (अग्ने) विद्या, विनय आदि के प्रकाशक आचार्य ! (तव सख्ये) आपके साहचर्य में (वयम्) हम शिष्य (मा रिषाम) अज्ञान, दुराचार आदि से उत्पन्न होनेवाली क्षति को न प्राप्त करें ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
विद्वान्, सदाचारी शिक्षणकला में कुशल आचार्य को वर कर उसकी सङ्गति में गुरुकुल में निवास करते हुए विनीत छात्र सुयोग्य और निर्दोष बनते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ६६ क्रमाङ्के परमेश्वरस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्राचार्यशिष्यविषयो वर्ण्यते।
वयम् (अर्हते) सुयोग्याय (जातवेदसे) विदुषे आचार्याय (मनीषया) मनोयोगेन सह (इमं स्तोमम्) एतत् श्रद्धास्तोत्रम् (सं महेम) सम्यक् प्रापयेम, (रथम् इव) यथा रथम् अन्यत्र प्रापयन्ति तद्वत्। यथा कञ्चित् पूज्यं जनं स्वगृहमानेतुं तस्मै शोभनो रथः प्रेष्यते, तथैवाचार्यमनुकूलयितुं तं प्रति श्रद्धावचांसि प्रेरयेमेति भावः। (अस्य) विदुषः आचार्यस्य (संसदि) संगतौ (नः) अस्मान् (भद्रा हि) कल्याणकरी खलु (प्रमतिः) प्रकृष्टा विद्या प्राप्नोति। हे (अग्ने) विद्याविनयादिप्रकाशक आचार्य ! (तव सख्ये) त्वदीये साहचर्ये (वयम्) शिष्याः (मा रिषाम) अज्ञानकदाचारादिकृतां क्षतिं न प्राप्नुयाम ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
विद्वांसं सदाचारिणं शिक्षणकलाकुशलमाचार्यं वृत्वा तत्संगतौ गुरुकुले निवसन्तो विनीताश्छात्राः सुयोग्या निर्दोषाश्च जायन्ते ॥१॥