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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣स्म꣡भ्य꣢मिन्दविन्द्रि꣣यं꣡ मधोः꣢꣯ पवस्व꣣ धा꣡र꣢या । प꣣र्ज꣡न्यो꣢ वृष्टि꣣मा꣡ꣳ इ꣢व ॥१०४६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अस्मभ्यमिन्दविन्द्रियं मधोः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमाꣳ इव ॥१०४६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । इ꣣न्दो । इन्द्रिय꣢म् । म꣡धोः꣢꣯ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । प꣣र्ज꣡न्यः꣢ । पृ꣣ष्टिमा꣢न् । इ꣣व ॥१०४६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1046 | (कौथोम) 4 » 1 » 3 » 10 | (रानायाणीय) 7 » 1 » 3 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) रस के भण्डार, करुणासागर परमेश ! (वृष्टिमान्) वर्षा करनेवाले (पर्जन्यः इव) बादल के समान, आप (मधोः) मधुर आनन्द-रस की (धारया) धारा के साथ (अस्मभ्यम्) हम उपासकों के लिए (इन्द्रियम्) जीवात्मा से सेवित आत्मबल (पवस्व) प्रवाहित कीजिए ॥१०॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

बादल की रस-वर्षा से पृथिवी के समान परमेश्वर की आनन्द-वर्षा से मनुष्य की आत्मभूमि सरस, सद्गुणों से अङ्कुरित और हरी-भरी हो जाती है ॥१०॥ इस खण्ड में परमात्मा के गुण-कर्मों का, उपास्य-उपासक सम्बन्ध का, ब्रह्मानन्द-रस का और प्रसङ्गतः पर्जन्य का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ सप्तम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) रसागार करुणावरुणालय परमेश ! (वृष्टिमान्) वृष्टिकर्ता (पर्जन्यः इव) मेघः इव, त्वम् (मधोः) मधुरस्य आनन्दरसस्य (धारया) प्रवाहसन्तत्या सह (अस्मभ्यम्) उपासकेभ्यो नः (इन्द्रियम्) इन्द्रेण जीवात्मना जुष्टम् आत्मबलम् (पवस्व) प्रक्षर ॥१०॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

पर्जन्यस्य रसवृष्ट्या पृथिवीव परमेश्वरस्यानन्दवृष्ट्या मनुष्यस्यात्मभूमिः सरसा सद्गुणप्ररोहा हरिता भरिता च जायते ॥१०॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो गुणकर्मणामुपास्योपासकसंबन्धस्य ब्रह्मानन्दरसस्य प्रसङ्गतः पर्जन्यस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेदितव्या ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२।९ ‘विन्द्रियं मधोः’ इत्यत्र ‘विन्द्र॒युर्मध्वः॑’ इति पाठः।