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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प꣡व꣢स्व देव꣣वी꣡रति꣢꣯ प꣣वि꣡त्र꣢ꣳ सोम꣣ र꣡ꣳह्या꣢ । इ꣡न्द्र꣢मिन्दो꣣ वृ꣡षा वि꣢꣯श ॥१०३७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व देववीरति पवित्रꣳ सोम रꣳह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश ॥१०३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣ववीः꣡ । दे꣣व । वीः꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । सो꣣म । र꣡ꣳह्या꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । इ꣣न्दो । वृ꣡षा꣢꣯ । वि꣣श ॥१०३७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1037 | (कौथोम) 4 » 1 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 7 » 1 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा में सोम नाम द्वारा जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रस के भण्डार जगदीश्वर ! (देववीः) सदाचारी विद्वानों को प्राप्त होनेवाले आप (रंह्या) वेग से (पवित्रम् अति) पवित्र हृदय-रूप छन्नी को पार करके (पवस्व) अन्तरात्मा में परिस्रुत होओ। हे (इन्दो) रस से आर्द्र करनेवाले जगत्पति ! (वृषा) आनन्द की वर्षा करनेवाले आप (इन्द्रम्) जीवात्मा में (विश) प्रवेश करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सोमौषधि का रस दशापवित्र नामक छन्नी के माध्यम से द्रोणकलश में पहुँचता है, वैसे ही परमेश्वर से आता हुआ आनन्दरस हृदय के माध्यम से अन्तरात्मा में पहुँचता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ सोमनाम्ना जगदीश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार जगदीश्वर ! (देववीः) देवान् सदाचारिणो विदुषः वेति प्राप्नोतीति देववीः, तादृशस्त्वम् (रंह्या) वेगेन (पवित्रम् अति) परिपूतं हृदयरूपं दशापवित्रम् अतिक्रम्य (पवस्व) अन्तरात्मनि परिस्रव। हे (इन्दो) रसेन क्लेदक जगत्पते ! (वृषा) आनन्दवर्षकः त्वम् (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (विश) प्रविश ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा सोमौषधिरसो दशापवित्रमाध्यमेन द्रोणकलशमुपतिष्ठते तथैव परमेश्वरादागच्छन्नानन्दरसो हृदयमाध्यमेनान्तरात्मानमुपतिष्ठते ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२।१।