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अ॒ग्निर्न यो वन॒ आ सृ॒ज्यमा॑नो॒ वृथा॒ पाजां॑सि कृणुते न॒दीषु॑ । जनो॒ न युध्वा॑ मह॒त उ॑प॒ब्दिरिय॑र्ति॒ सोम॒: पव॑मान ऊ॒र्मिम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir na yo vana ā sṛjyamāno vṛthā pājāṁsi kṛṇute nadīṣu | jano na yudhvā mahata upabdir iyarti somaḥ pavamāna ūrmim ||

पद पाठ

अ॒ग्निः । न । यः । वने॑ । आ । सृ॒ज्यमा॑नः । वृथा॑ । पाजां॑सि । कृ॒णु॒ते॒ । न॒दीषु॑ । जनः॑ । न । युध्वा॑ । म॒ह॒तः । उ॒प॒ब्दिः । इय॑र्ति । सोमः॑ । पव॑मानः । ऊ॒र्मिम् ॥ ९.८८.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:88» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो सोम (सृज्यमानः अग्निर्न) उत्पन्न की हुई अग्नि के समान (वने) वन में (पाजांसि) बलों को (वृथा कृणुते) व्यर्थ कर देता है। (नदीषु) अन्तरिक्षों में (पाजांसि) जल के बलों को (वृथा कृणुते) व्यर्थ कर देता है। (जनो न) जिस प्रकार मनुष्य (युद्ध्वा) युद्ध करके (महत उपब्दिः) बड़ा शब्द करता हुआ (इयर्ति) प्रेरणा करता है, इसी प्रकार (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला (सोमः) सोम (ऊर्म्मिम्) आनन्द की लहरों को बहाता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - अग्नि जिस प्रकार सब तेजों को तिरस्कृत करके अपने में मिला लेता है अर्थात् विद्युदादि तेज जैसे अन्य तुच्छ तेजों को तिरस्कृत कर देता है, इसी प्रकार परमात्मा के समक्ष सब तेज तुच्छ हैं अर्थात् परमात्मा ही सब ज्योतियों की ज्योति होने से स्वयंज्योति है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) यः सोमः (सृज्यमानः, अग्निः, न) उत्पन्नाग्निरिव (वने) अरण्ये (पाजांसि) बलानि (वृथा, कृणुते) व्यर्थयति। (नदीषु) अन्तरिक्षेषु (पाजांसि) जलबलानि (वृथा, कृणुते) व्यर्थयति। (जनः, न) यथा नरः (युद्ध्वा) युद्धं कृत्वा (महतः, उपब्दिः) महाशब्दं कुर्वन् (इयर्ति) प्रेरयति। एवमेव (पवमानः) सर्वपावकः (सोमः) परमात्मा (ऊर्मिं) आनन्दतरङ्गान् वाहयति ॥५॥