वांछित मन्त्र चुनें

कनि॑क्रदत्क॒लशे॒ गोभि॑रज्यसे॒ व्य१॒॑व्ययं॑ स॒मया॒ वार॑मर्षसि । म॒र्मृ॒ज्यमा॑नो॒ अत्यो॒ न सा॑न॒सिरिन्द्र॑स्य सोम ज॒ठरे॒ सम॑क्षरः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kanikradat kalaśe gobhir ajyase vy avyayaṁ samayā vāram arṣasi | marmṛjyamāno atyo na sānasir indrasya soma jaṭhare sam akṣaraḥ ||

पद पाठ

कनि॑क्रदत् । क॒लशे॑ । गोभिः॑ । अ॒ज्य॒से॒ । वि । अ॒व्यय॑म् । स॒मया॑ । वार॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । म॒र्मृ॒ज्यमा॑नः । अत्यः॑ । न । सा॒न॒सिः । इन्द्र॑स्य । सो॒म॒ । ज॒ठरे॑ । सम् । अ॒क्ष॒रः॒ ॥ ९.८५.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:85» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (कनिक्रदत्) स्वसत्ता से गर्जते हुए (कलशे) विद्वानों के अन्तःकरण में (गोभिः) अन्तःकरण की वृत्तियों से (अज्यसे) साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं। (अव्ययं) अपने अव्यय स्वरूप के (समया) साथ (वारं) वर्णनीय ज्ञान के पात्र को (अर्षसि) प्राप्त होते हैं। (मर्मृज्यमानः) साक्षात्कार को प्राप्त (अत्यो न) गतिशील पदार्थों के समान (सानसिः) उपासनायोग्य आप (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगी के (जठरे) अन्तःकरण में (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (समक्षरः) भली-भाँति विराजमान होते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का अविनाशीभाव जब मनुष्य के हृदय में आता है, तो मनुष्य मानों ईश्वर के समीप पहुँच जाता है। इसी का नाम परमात्मप्राप्ति है। वास्तव में परमात्मा किसी के पास चलकर नहीं आता और न किसी से दूर जाता है। इसी अभिप्राय से वेद में लिखा है कि “तद्दूरे तद्वन्तिके” अर्थात् वह अज्ञानियों से दूर और ज्ञानियों के समीप है ॥५॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगन्नियन्तः ! (कनिक्रदत्) स्वसत्तया गर्जन् (कलशे) विदुषामन्तःकरणे (गोभिः) अन्तःकरणवृत्तिभिः (अज्यसे) साक्षाद्भवसि (अव्ययं) स्वाव्ययस्वरूपेण (समया) सह (वारं) वरणीयं ज्ञानपात्रं (अर्षसि) प्राप्तो भवसि। (मर्मृज्यमानः) साक्षात्कृतः (अत्यः, न) गत्वरपदार्थ इव (सानसिः) उपासनीयो भवान् (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (जठरे) अन्तःकरणे (सोम) हे परमात्मन् ! (समक्षरः) सम्यग् विराजमानो भवति ॥५॥