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क॒विर्वे॑ध॒स्या पर्ये॑षि॒ माहि॑न॒मत्यो॒ न मृ॒ष्टो अ॒भि वाज॑मर्षसि । अ॒प॒सेध॑न्दुरि॒ता सो॑म मृळय घृ॒तं वसा॑न॒: परि॑ यासि नि॒र्णिज॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kavir vedhasyā pary eṣi māhinam atyo na mṛṣṭo abhi vājam arṣasi | apasedhan duritā soma mṛḻaya ghṛtaṁ vasānaḥ pari yāsi nirṇijam ||

पद पाठ

क॒विः । वे॒ध॒स्या । परि॑ । ए॒षि॒ । माहि॑नम् । अत्यः॑ । न । मृ॒ष्टः । अ॒भि । वाज॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । अ॒प॒ऽसेध॑न् । दुः॒ऽइ॒ता । सो॒म॒ । मृ॒ळ॒य॒ । घृ॒तम् । वसा॑नः । परि॑ । या॒सि॒ । निः॒ऽनिज॑म् ॥ ९.८२.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:82» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (वेधस्या) उपदेश करने की इच्छा से आप (माहिनं) महापुरुषों को (पर्येषि) प्राप्त होते हो और आप (अत्यः) अत्यन्त गतिशील पदार्थ के (न) समान (अभिवाजं) हमारे आध्यात्मिक यज्ञ को (अभ्यर्षसि) प्राप्त होते हैं। आप (कविः) सर्वज्ञ हैं (मृष्टः) शुद्धस्वरूप हैं (दुरिता) हमारे पापों को (अपसेधन्) दूर करके (सोम) हे सोम ! (मृळय) आप हमको सुख दें और (घृतं वसानः) प्रेमभाव को उत्पन्न करते हुए (निर्णिजं) पवित्रता को (परियासि) उत्पन्न करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में सर्वज्ञ परमात्मा से यह प्रार्थना है कि हे परमात्मन् ! आप हमको शुद्ध करें और सब प्रकार के सुख प्रदान करें। यहाँ सोम के लिये कवि शब्द आया है। सायण के मत में यहाँ सोमलता को ही कवि=सर्वज्ञ कथन किया गया है। वास्तव में वेदों में कवि शब्द जड़ के लिये कहीं भी नहीं आता। इतना ही नहीं, किन्तु “कविर्मनीषी, परिभूः, स्वयम्भूः” य० ४०।८ इत्यादि वाक्यों में कवि शब्द परमात्मा के लिये आया है, इस प्रकार उक्त मन्त्र में कवि शब्द से परमात्मा का ग्रहण करना चाहिये, जड़ सोम का नहीं ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (वेधस्या) उपदेष्टुमिच्छया भवान् (माहिनम्) महापुरुषान् (पर्येषि) प्राप्नोति अथ च त्वं (अत्यो, न) अतिगत्वरपदार्थ इव (अभिवाजम्) मदाध्यात्मिकयज्ञं (अभ्यर्षि) प्राप्नोषि। त्वं (कविः) सर्वज्ञोऽसि (मृष्टः) तथा शुद्धस्वरूपोऽसि। (दुरिता) मदीयदुष्कृतानि (अपसेधन्) विदूरं कृत्वा (सोम) हे परमात्मन् ! (मृळय) मां सुखय अथ च (घृतं वसानः) प्रेमभावमुत्पादयन् (निर्निजम्) पवित्रताम् (परियासि) उत्पादयसि ॥२॥