पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (ये ते मदा आहनसः) जो आपके स्वभाव वाणी के समान उपदेश करते हैं, (तेभिः) उनसे (विहायसाः) हमारा आप आच्छादन करें और (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (मघं दातवे) ऐश्वर्य देने के लिये (चोदय) प्रेरणा कीजिये। (सोम) हे परमात्मन् ! उपदेशकों द्वारा (नृभिः) हमको पवित्र करते हुए (परिपुनानः) हमारे कल्याण के लिये (स्वस्तये) प्राप्त होइये और (प्रधन्व) हमारे आश्रय की (आशिरम्) सब ओर से रक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो लोग एकमात्र परमात्मा का आश्रयण करते हैं, परमात्मा उनकी सर्वथा रक्षा करते हैं, क्योंकि सर्वनियन्ता और सबका अधिष्ठाता एकमात्र वही है। जैसा कि हम पूर्व भी अनेक स्थलों में लिख आये हैं कि “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म” तै० ३।१॥ “सर्वाणि वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्ते आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो वा एभ्यो ज्यानाकाशः परायणम्” छा० ६।१४।१॥ “आत्मैवेदं सर्वम्” छा० ७।२५।२॥ “पुरुष एवेदं सर्वम्” ऋ० ८।४।१७।१॥ “स एव जातः स जनिष्यमाणः” यजु० ३२।४॥ “नित्यो नित्यानाम्” कठ० ५।१३॥ “नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मम्” मु० १।१।६॥ “सत्यं हैव ब्रह्म” बृ० ५।४।१॥ “ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्” श्वे० ३।२१॥ “यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिः” ऋ० १।७।१२।५॥ “यः प्राणतो निमिषतो माहित्वैक इद्राजा जगतो बभूव” ऋ० ८।७।३।३॥ “यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति” अथ० १०।८।४।१॥ “ब्रह्म गामश्वं जनयन्त ओषधीर्वनस्पतीन् पृथिवीं पर्वताँ अपः। सूर्यं दिवि रोहयन्तः सुदानव आर्या व्रताः विसृजन्तो अधिक्षमि” ॥ इत्यादि वेदोपनिषदों के वचनों से प्रसिद्ध है कि परमात्मा ही सबका अधिष्ठान है। अधिष्ठान, अधिकरण, आश्रय ये एक ही वस्तु के नाम हैं। उसी परमात्मा ने इस चराचरात्मक संसार को उत्पन्न किया है, जिसको कोई आश्चर्यरूप से देख रहा है, कोई आश्चर्यरूप से सुन रहा है और कोई इस गूढ तत्त्व को न समझकर अज्ञानावस्था में पड़ा हुआ है। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसके कर्तृत्व का कोई तिरस्कार नहीं कर सकता। अर्थात् नास्तिक से नास्तिक भी जब इस बात का विचार करता है कि इस विविध रचनासंयुक्त विश्व को किसने उत्पन्न किया, तो उसकी दृष्टि भी किसी अद्भुत शक्ति पर ही ठहरती है। अस्तु–ये विचार तो उन लोगों के हैं, जो ब्रह्म को तर्कगम्य मानते हैं और जिन आस्तिक लोगों के विचार में ब्रह्म शब्दगम्य है, उनके लिये प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं। इसीलिये हमने ऋ. मं. १०। सू. ६५। मं. ११ में यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रह्म ने इस संसार को पहिले सूक्ष्मावस्था में बनाया और फिर स्थूलावस्था में मेघाकार, फिर पृथिवी, वनस्पति, ओषधि और फिर गवाश्वादिरूप से इस संसार की सृष्टि की ॥कई एक लोग उक्त मन्त्र के ये अर्थ करते हैं कि “दिवि रोहयन्तः” द्युलोक में आरोहण करते हुए और सूर्यलोक को आरोहण करते हुए “सुदानवः” दानशील लोग ब्रह्म=अन्न, गो, अश्वादि सृष्टि को (जनयन्तः) पैदा करते भये। इस अर्थ को न केवल सायणाचार्य ने किया है, किन्तु विलसन ग्रिफिथ इत्यादि यूरोपियन विद्वानों ने भी यही अर्थ किये हैं और वे लोग हेतु यह देते हैं कि “जनयन्तः” यह बहुवचन उक्त देवों में घट सकता है, ब्रह्म में नहीं। यदि उनसे यह पूछा जाय कि “आर्या व्रता विसृजन्त” इस वाक्य में “व्रता” का “व्रतानि” कैसे बना लिया और “आर्या” का “श्रेष्ठानि” कैसे बना लिया, तो उत्तर यही मिलेगा कि वेद में इस लौकिक व्याकरण का बल नहीं चलता। यदि इसी प्रकार लौकिक व्याकरण का त्याग करना है, तो “ब्रह्म” को कर्ता रखकर यह अर्थ क्यों न किया जाय कि ब्रह्म ने सम्पूर्ण पृथिवी-पर्वतादि पदार्थों को उत्पन्न किया। इस उदाहरण से हमारा तात्पर्य व्याकरण की लघुता करने का नहीं, किन्तु जो लोग व्याकरण का अन्यथा उपयोग करके वेदार्थ को बिगाड़ते हैं, उनकी भूल दूर करने का है। इसी प्रकार मं. १ सू० २४ मं ८। में “पन्थानं” के स्थान में वेद में “पन्थां” पाठ है और “सूर्यस्य” के स्थान में “सूर्याय” है। इसी प्रकार अनेक स्थलों में “विप्रेभिः” “प्रचैः” “रथीः” इत्यादि अनेक प्रयोग ऐसे पाए जाते हैं, जो अज्ञों के गर्व को भञ्जन करके वैदिक साहित्य के गर्व को स्थिर करते हैं। अस्तु–मुख्य प्रसङ्ग यह है कि “आशिरम्” हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति करनेवाला परमात्मा हममें कर्मयोगियों को उत्पन्न करके हमको कर्मयोगी तथा उद्योगी बनाये ॥५॥यह श्रीमद् आर्यमुनि के द्वारा उपनिबद्ध क्संहिताभाष्य के सातवें अष्टक में द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ॥