यो जि॒नाति॒ न जीय॑ते॒ हन्ति॒ शत्रु॑म॒भीत्य॑ । स प॑वस्व सहस्रजित् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yo jināti na jīyate hanti śatrum abhītya | sa pavasva sahasrajit ||
पद पाठ
यः । जि॒नाति॑ । न । जीय॑ते । हन्ति॑ । शत्रु॑म् । अ॒भि॒ऽइत्य॑ । सः । प॒व॒स्व॒ । स॒ह॒स्र॒ऽजि॒त् ॥ ९.५५.४
ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:55» मन्त्र:4
| अष्टक:7» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:4
| मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:4
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (यः जिनाति) जो आप सकल ब्रह्माण्डगत पदार्थों को आयुरहित कर देते हैं और (न जीयते) स्वयं कदापि निरायुष नहीं होते तथा (शत्रुम् अभीत्य हन्ति) जो आप अपनी व्याप्ति द्वारा शत्रुओं की शक्तियों को हर लेते हैं और स्वयं अहार्य शक्तिवाले हैं (सहस्रजित्) वह सर्वोपरिशक्तिसम्पन्न आप (पवस्व) हमको सुरक्षित करिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - काल सब पदार्थों के आयु को क्षय करके आप स्वयं अविनाशी बना रहता है, परन्तु काल का अविनाशित्व भी सापेक्ष है अर्थात् अनित्य पदार्थों की अपेक्षा काल को नित्य कहा जाता है, परन्तु परमात्मा की अपेक्षा से काल भी अनित्य है, इसलिए परमात्मा सर्वोपरि कूटस्थ नित्य है। उसी की उपासना मनुष्य को शुद्ध हृदय से करनी चाहिये ॥४॥ यह ५५ वाँ सूक्त और १२ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (यः जिनाति) यो हि भवान् सकलब्रह्माण्डान्तर्गत- पदार्थानायुरहितान् करोति अथ च (न जीयते) स्वयमायुरहितः कदापि न भवति। तथा (शत्रुम् अभीत्य हन्ति) यो हि स्वव्यापनशीलशक्त्या वैरिबलमपहरति परं स्वयमहरणीय- शक्तिमानस्ति (सहस्रजित्) स सर्वोपरिशक्तिसम्पन्नस्त्वं (पवस्व) मां सुरक्षय ॥४॥ इति पञ्चपञ्चाशत्तमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥