तुभ्यं॒ गावो॑ घृ॒तं पयो॒ बभ्रो॑ दुदु॒ह्रे अक्षि॑तम् । वर्षि॑ष्ठे॒ अधि॒ सान॑वि ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
tubhyaṁ gāvo ghṛtam payo babhro duduhre akṣitam | varṣiṣṭhe adhi sānavi ||
पद पाठ
तुभ्य॑म् । गावः॑ । घृ॒तम् । पयः॑ । बभ्रो॒ इति॑ । दु॒दु॒ह्रे । अक्षि॑तम् । वर्षि॑ष्ठे । अधि॑ । सान॑वि ॥ ९.३१.५
ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:31» मन्त्र:5
| अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:5
| मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:5
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (बभ्रो) “बिभर्तीति बभ्रुः तत्सम्बुद्धौ बभ्रो” हे सबके धारण करनेवाले परमात्मन् ! (वर्षिष्ठे अधि सानवि) विभूतिवाली प्रत्येक वस्तु में आप शक्तिरूप से विराजमान हैं और (तुभ्यम् गावः) तुम्हारे लिये ही पृथिव्यादिलोक-लोकान्तर (घृतम् पयः) घृत दुग्धादि अनन्त प्रकार के रसों को जो (अक्षितम्) निरन्तर स्यन्दमान हो रहे हैं, उनको (दुदुह्रे) दुहते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मरचित इस ब्रह्माण्ड में नाना प्रकार के घृतदुग्धादि रस दिनरात प्रवाहरूप से स्यन्दमान हो रहे हैं, बहुत क्या, जो-जो विभूतिवाली वस्तु है, उससे परमात्मा का ऐश्वर्य सर्वत्र देदीप्यमान हो रहा है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “यद्यद्विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्” । जो-जो विभूतिवाली वस्तु अथवा ऐश्वर्य और शोभावाली हो, वह सब परमात्मा के प्रकृतिरूप अंश से उत्पन्न हुई है ॥५॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (बभ्रो) हे विश्वम्भर परमात्मन् ! भवान् (वर्षिष्ठे अधि सानवि) विभूतशालिनि सर्वत्र वस्तुनि शक्तिरूपेण विराजते किञ्च (तुभ्यम् गावः) भवदर्थमेव पृथिव्यादयो लोकाः (घृतम् पयः) घृतदुग्धादिकमनेकधा रसं (अक्षितम्) निरन्तरं स्यन्दमानं (दुदुह्रे) उत्पादयन्ति ॥५॥