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ए॒ष दे॒वः शु॑भाय॒तेऽधि॒ योना॒वम॑र्त्यः । वृ॒त्र॒हा दे॑व॒वीत॑मः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣa devaḥ śubhāyate dhi yonāv amartyaḥ | vṛtrahā devavītamaḥ ||

पद पाठ

ए॒षः । दे॒वः । शु॒भा॒य॒ते॒ । अधि॑ । योनौ॑ । अम॑र्त्यः । वृ॒त्र॒ऽहा । दे॒व॒ऽवीत॑मः ॥ ९.२८.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:28» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः देवः) यह परमात्मा (अधि योनौ) प्रकृति में (अमर्त्यः) अविनाशी हो कर (शुभायते) प्रकाशित हो रहा है (वृत्रहा) और वह अज्ञान का नाशक है तथा (देववीतमः) सत्कर्मियों को अत्यन्त चाहनेवाला है ॥३॥
भावार्थभाषाः - तात्पर्य यह है कि योनि नाम यहाँ कारण का है, वह कारण प्रकृतिरूपी कारण है अर्थात् प्रकृति परिणामिनी नित्य है और ब्रह्म कूटस्थ नित्य है। परिणामी नित्य उसको कहते हैं कि जो वस्तु अपने स्वरूप को बदले और नाश को न प्राप्त हो और कूटस्थ नित्य उसको कहते हैं कि जो स्वरूप से नित्य हो अर्थात् जिसके स्वरूप में किसी प्रकार का विकार न आये। उक्त प्रकार से यहाँ परमात्मा को कूटस्थरूप से वर्णन किया है ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः देवः) अयं परमात्मा (अधि योनौ) प्रकृतौ (अमर्त्यः) अविनाशी सन् (शुभायते) प्रकाशते (वृत्रहा) अज्ञाननाशकः   (देववीतमः) सत्कर्मिभ्यो भृशं स्पृहयति च ॥३॥