पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) हे सर्वोपरि विराजमान परमात्मन् ! (ते) तुम्हारा (यत्) जो (शृतम्) परिपक्व (हविः) ज्ञानरूप फल है, (तेन) उसके द्वारा (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (नः) हमारी (अभि, रक्ष) सर्व प्रकार से रक्षा करें। (अरातिवा) शत्रु लोग (नः) हमको (मा, तारीत्) मत सतावें (च) और (नः) हमारे (किञ्चन) मोक्षसम्बन्धी किसी भी ऐश्वर्य को (मो, आममत्) नष्ट न करें। (इन्दो) हे परमात्मन् ! (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (परि, स्रव) सुधा की वृष्टि करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में मुक्तिरूपी फल का उपसंहार करते हुए सब विघ्नों की शान्ति के लिये प्रार्थना की गयी है कि हे सर्वरक्षक भगवन् ! वैदिक कर्म तथा वैदिक अनुष्ठान के विरोधी शत्रुओं से हमारी सब प्रकार से रक्षा करें, ताकि वे हमारे किसी अनुष्ठान में विघ्नकारी न हों और अपनी परम कृपा से मोक्षसम्बन्धी ऐश्वर्य हमें प्रदान करें, यह हमारी आपसे सविनय प्रार्थना है ॥४॥ यह ११४ वाँ सूक्त, सातवाँ अनुवाक और अट्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥ यह श्रीमदार्य्यमुनि के द्वारा उपनिबद्ध ऋक्संहिता के भाष्य में सातवें अष्टक में नवम मण्डल समाप्त हुआ ॥