पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वः) “अश्नुतेऽध्वानमित्यश्वः” निरु. १।१३।५=जो शीघ्रगामी होकर अपने मार्गों का अतिक्रमण करे, उसका नाम “अश्व” है, इस प्रकार यहाँ अश्व नाम विद्युत् का है। (वोळ्हा) सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाला वा प्राप्त होनेवाला विद्युत् जिस प्रकार (रथं) गति को (इच्छति) चाहता है, जैसे (उपमन्त्रिणः) उपमन्त्री लोग (हसनां) आह्लादजनक क्रिया की इच्छा करते हैं, जैसे (मण्डूकः) “मण्डयतीति मण्डूकः”=मण्डन करनेवाला पुरुष (वारित्) वरणीय पदार्थ की ही इच्छा करता है, जैसे (शेपः) सूर्य्य का प्रकाश (रोमण्वन्तौ) प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में (भेदौ) विभाग की इच्छा करता है, इसी प्रकार योग्यतानुसार विभाग की इच्छा करते हुए (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यसम्पन्न राजा को (परि, स्रव) अभिषिक्त करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र का अर्थ स्पष्ट है। यहाँ यह लिखना अनुपयुक्त नहीं कि इस मन्त्र के अर्थ सायणाचार्य्य तथा आजकल के कई वैदिक ज्ञानाभिमानियों ने अत्यन्त निन्दित किये हैं, जो ऐश्वर्य्यप्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उनका हम विस्तारपूर्वक खण्डन उपसंहार में करेंगे ॥४॥ यह ११२ वाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥