पदार्थान्वयभाषाः - (अमृत) हे सदा एकरस तथा जरामरणादि धर्मों से रहित परमात्मन् ! आप (मर्त्येषु, आ) मनुष्यों के सम्मुख होने के लिये (चारुणः, अमृतस्य, धर्मन्) सुन्दर अविनाशी परमाणुओं को धारण करनेवाले अन्तरिक्षदेश में (अजीजनः) सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों को उत्पन्न करके (सदा, असरः) सदैव विचरते हो, इसलिये (वाजं, अच्छ) ऐश्वर्य्य को लक्ष्य रखकर (सनिष्यदत्) हमारी भक्ति का विषय हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप सदा एकरस सर्वत्र विराजमान और सदैव सब प्राणियों को अहर्निश देखते हुए विचरते हैं, अतएव प्रार्थना है कि आप हमें अपनी भक्ति का दान दें कि हम आपकी आज्ञा का पालन करते हुए ऐश्वर्य्यशाली हों। विचरने से तात्पर्य्य अपनी व्यापक शक्ति द्वारा सर्वत्र विराजमान होने का है, चलने का नहीं ॥४॥